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________________ Garb. २०४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + फंसने के लिए नहीं है । यदि तू कर्मबन्धन करेगा तो उसके कटुफल तुझे ही भोगने पड़ेंगे। यदि तूने श्रेष्ठ कर्म किये तो उसका फल श्रेष्ठ प्राप्त होगा। यदि कनिष्ठ कर्म किये तो उसका फल अशुभ प्राप्त होगा। कर्मों का फल निश्चित रूप से सभी को भोगना पड़ता है। भोक्ता के हाथ में कोई शक्ति नहीं कि उन्हें भोगे बिना रह सके । गुरुदेव श्री ने कथाओं में पूर्वजन्म का भी चित्रण किया है जिसके कारण व्यक्ति को इस जन्म में सुख और दुःख प्राप्त होते हैं। कथाओं में इस बात पर भी बल दिया गया है कि अशुभ कृत्यों से बचो । जो व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो वैसा ही व्यवहार दूसरे के लिए भी करो। इन कथाओं में जीवनोत्कर्ष की पवित्र प्रेरणाएँ दी गयी हैं। व्यसनों से बचने के लिए और सद्गुणों को धारण करने के लिए सतत प्रयास किया गया है। इन कथाओं के सभी पात्र जैनकथा के साहित्य के निर्धारित प्रयोजन के अनुरूप ढाले गये हैं । इसमें कोई राजा है, रानी है, मन्त्री है, राजपुत्र है, कोई सेठ व सेठानी है । कोई चोर, कोई दुकानदार तो कोई सैनिक है-इस तरह सभी पात्र अपने-अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं । स्वकृत कर्म का फल भोगते हैं । कर्म के अनुसार उनका जीवनयापन होता है। और अन्त में किसी न किसी का उपदेश धवण कर या किसी निमित्त से वे संसार से विरक्त हो जाते हैं । श्रमण जीवन या श्रावक जीवन को स्वीकार कर मुक्ति की ओर कदम बढ़ाते हैं । इन कथाओं में जीवनोत्कर्ष चारित्र द्वारा होता है। कषायों की मन्दता, आचार की निर्मलता के स्वर सर्वत्र झंकृत हुये हैं । सीधे, सरल व नपे तुले शब्दों में वे पात्र की विशेषताएं बतलाते हैं। इन कथाओं के वर्णनों में उतार-चढ़ाव नहीं है । जो सज्जन हैं वे जीवन की सान्ध्यवेला तक सज्जन ही बने रहे किन्तु दुर्जन व्यक्तियों का मानस भी उन सज्जनों के सम्पर्क से बदल जाता है । वह अपने दुष्कृत्यों का परित्याग कर सु-कृत्यों को अपनाते हैं । कथाएँ कुछ बड़ी हैं कुछ छोटी । कथालेखन शैली कथा कहने के समान ही है । सभी कथाएँ वर्णनात्मक और उपदेश प्रधान हैं । यत्र-तत्र सूत्र रूप में उपदेश दिया गया है । ये कथाएँ आधुनिक कहानी व उपन्यास के शिल्प की दृष्टि से भले ही कम खरी उतरें, क्योंकि लेखक का उद्देश्य पाठक को शब्द जाल में व शैली के भंवर जाल में उलझाना नहीं है, वह तो पाठकों के जीवन का चारित्रिक दृष्टि से निर्माण करना चाहता है । इसलिए यत्र-तत्र उपदेश, नीति-कथन व उद्धरणों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से हुआ है । भाषा में चुम्बकीय आकर्षण है जो पाठकों को सदा आकर्षित करता रहता है । कथोपकथन यथास्थान कथासूत्र को आगे बढ़ाने में उपयोगी है। ये सभी कथाएँ जैन कथासाहित्य की सुन्दर व अनमोल मणियाँ हैं जो सदा चमकती रहेंगी। 'जैन कथाएँ' के अतिरिक्त आपश्री के प्रवचन साहित्य में सैकड़ों रूपक और लघु व बोधकथाएँ प्रयुक्त हुई हैं। सभी कथाएँ दिलचस्प, शिक्षाप्रधान हैं। किसी कहानी में वैराग्य की रसधारा है तो किसी में बाल-क्रीड़ा एवं मातृ-स्नेह का वात्सल्य रस प्रवाहित है तो किसी में पवित्र चरित्र की शुभ्र तरंगें तरंगित हो रही हैं तो किसी में नीति कुशलता की ऊर्मियाँ उठ रही हैं तो कहीं पर बुद्धि के चातुर्य की क्रीड़ाओं की लहरें अठखेलियां कर रही हैं तो कहीं पर दया, अहिंसा, मानवता के सिद्धान्तों की सरस धाराएं प्रवाहित हो रही हैं, कहीं पर वीर रस, कहीं पर शान्त रस को उछलती हुई कल्लोलें कल्लोल कर रही हैं। आपश्री की कथाओं की भाषा मुहावरेदार और कहावतों से परिपूर्ण है । भाषा बहुत ही सरल, सुन्दर और सरस है । जैसे तेलयुक्त धुरी से लगा हुआ चक्र बिना किसी रुकावट के नाचता है वैसे ही पाठक इन कहानियों के रस में प्रवाहित हो जाता है । आपश्री ने सभी प्राचीन कथाओं को प्राणवती भाषा में नवजीवन दिया है । आपके कथा साहित्य में पिष्टपेषण नहीं है । आप कथाओं के माध्यम से नया चिन्तन, मौलिक विचार देना चाहते हैं। प्रवचन-साहित्य चीनी भाषा के सुप्रसिद्ध धर्मग्रन्थ ताओउपनिषद में एक स्थान पर कहा है "हृदय से निकले हुए शब्द लच्छेदार नहीं होते और लच्छेदार शब्द कभी विश्वास लायक नहीं होते।" । हृदय की गहराई से जो वाणी प्रस्फुटित होती है उसमें सहज स्वाभाविकता होती है, जिस प्रकार कुएँ की गहराई से निकलने वाले जल में शीतलता भी सहज होती है, उष्मा भी सहज होती है और निर्मलता भी । जो वाणी सहज रूप से व्यक्त होती है वह प्रभावशाली होती है । जो उपदेश आत्मा से निकलता है वह आत्मा को स्पर्श करता है, जो केवल जीभ से ही निकलता है वह अधिक प्रभावशाली नहीं होता, हृदय को छू नहीं सकता चूंकि उसमें चिन्तन, मनन और आचार का बल नहीं होता। साधारण व्यक्ति की वाणी वचन है तो विशिष्ट विचारकों की वाणी प्रवचन है। क्योंकि उनकी वाणी में चिन्तन, भावना, विचार और जीवन का दर्शन होता है । वे निरर्थक बकवास नहीं करते, किन्तु जो भी बोलते हैं उसमें गहरा अर्थ होता है, तीर के समान बेधकता होती है । एतदर्थ ही संघदासगणी ने बृहत्कल्प भाष्य में कहा है लायत धुरी से लगा हु न कथाओं को प्राण मौलिक विचा . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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