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________________ तृतीय खण्ड : गुरुदेव की साहित्य धारा २०३ . ०० में प्रतिभासम्पन्न विद्वानों की कमी नहीं है, यह फसल बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है। विचारकों का बाजार भी बड़ा गर्म है । ग्रन्थकारों का तो कहना ही क्या ? वे भी अल्पसंख्यक नहीं रहे, पर सच्चे सन्त बड़े महंगे हो गए हैं । किन्तु स्वामी जी महाराज सच्चे सुसंस्कारी सन्त थे । इसी कारण जन-जन के वे हृदय के हार और जन-मन के सम्राट थे।" पण्डित श्रीमल जी महाराज के सम्बन्ध में आपश्री ने लिखा है "उस समय मैं 'सिद्धान्त कौमुदी' पढ़ रहा था, काव्य और न्याय के ग्रन्थों का भी अध्ययन चल रहा था। सुना, नया बाजार के स्थानक में स्थित मुनि श्री श्रीमलजी पण्डित अम्बिकादत्त जी से सिद्धान्त कौमुदी पढ़ रहे हैं। उनसे मिलने की जिज्ञासा तीव्र हुई पर शहर में मिलना सम्भव नहीं था। प्रातः वे जिधर शौच के लिए जाते थे, उधर हम भी गए। जंगल का वह एकान्त शान्त स्थान । सम्प्रदायवाद से उन्मुक्त वातावरण । दिल खोलकर संस्कृत भाषा में वार्तालाप हुआ । अनेक प्रश्नों पर विचार चर्चा हुई। भय का भूत भगा और हम एक-दूसरे के पक्के मित्र हो गये।" कथा-साहित्य विश्व साहित्य में कहानी या कथा साहित्य का अत्यधिक महत्त्व रहा है। कथा विश्व का सबसे प्राचीन साहित्य है। विश्व के मूर्धन्य मनीषियों ने काव्य का आदिकाल निश्चित किया, उन्होंने महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि माना। कोंच पक्षी के जोड़े पर शिकारी ने बाण का प्रहार किया जिससे नर क्रौंच छटपटाने लगा । उसकी दारुण वेदना और वियोग में मादा क्रौंच करुण क्रन्दन करने लगी जिसे देखकर वाल्मीकि के हत्तन्त्री के तार झनझना उठे और काव्य का सृजन हो गया जिसे आदि काव्य माना गया । किन्तु कथा या कहानी का इतिहास कितना पुराना है यह अभी तक अज्ञात है। पाश्चात्य या पौर्वात्य विज्ञों का अभिमत है कि भारतीय साहित्य में ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। ऋग्वेद, साहित्य का आदि ग्रन्थ है। किन्तु कथा साहित्य ऋग्वेद से भी प्राचीन है । इतिहास विज्ञों का मानना है कि ऋग्वेद की रचना भारत में आर्यों के आगमन के पश्चात् ही हुई, किन्तु आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में विकसित रूप से धार्मिक और दार्शनिक परम्पराएँ थीं । और उनका साहित्य भी था । भले ही वह लिखित रूप में न होकर मुखान रहा हो । वेद भी जब रचे गये तब लिखे नहीं गये थे। उन्हें एक-दूसरे से सुनकर स्मृति में रखा जाता था। अतः वेदों को श्रुति भी कहा जाता है। इसी तरह जैन साहित्य भी सुनकर स्मरण रखने के कारण श्रुत कहलाता रहा है। कथा या कहानी श्रुति और श्रुत से भी प्राचीन है । कथा के प्रति मानव का सहज और स्वाभाविक आकर्षण है। सत्य तो यह है कि मानव का जीवन भी एक कहानी ही है, जन्म से जिसका प्रारम्भ होता है और मृत्यु के साथ अवसान होता है। कहानी कहने और सुनने की लालसा मानव में आदि काल से ही है। श्रद्धय सद्गुरुवर्य ने कथा साहित्य में उपन्यास और कहानी दोनों लिखे हैं । उपन्यास में जीवन के सर्वांगीण और बहुमुखी चित्र विस्तार से लिखे जाते हैं। यही कारण है कि उपन्यास की लोकप्रियता विद्युत गति से बढ़ रही है। आज साहित्य के क्षेत्र में उपन्यास की बाढ़ आ रही है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा है-उपन्यास ने तो मनोरंजन के लिए लिखी जाने वाली कविताओं एवं नाटकों का रस-रंग भी फीका कर दिया है। क्योंकि पांच मील दौड़कर रंगशाला में जाने की अपेक्षा पांच सौ मील से पुस्तकें मेंगा लेना ऐसा आसान हो गया है जो रंग-मंच को अपने पत्रों में लपेटे हुए है।" उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने उपन्यास की परिभाषा देते हुए लिखा है कि “मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता है।" मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है । इस परिभाषा के प्रकाश में सद्गुरुदेव के कथा साहित्य को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-(१) उपन्यास और (२) कहानी साहित्य ।। जैन श्रमण होने के नाते आपके उपन्यास भले ही आधुनिक उपन्यासों की कसौटी पर पूर्ण रूप से खरे न उतरें, तथापि उन उपन्यासों में धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक विषयों की गम्भीर गुत्थियां सुलझायी गयी हैं । आपश्री ने 'जैन-कथाएँ' नामक कथामाला के अन्तर्गत पचास भाग लिखे हैं जिनमें से चालीस भाग प्रायः प्रकाशित हो चुके हैं। शेष भाग प्रकाशित हो रहे हैं । प्रकाशित भागों में प्रथम, चतुर्थ, षष्ठम, नवम, दशम, चतुर्दश, पंचविशांति और पैतीसवां भाग उपन्यास के रूप में है। शेष भागों में कथाएँ हैं । उपन्यास व कथाओं का मूल उद्देश्य नैतिक भावनाएं जागृत करना है। आपश्री के उपन्यास व कथाओं की शैली अत्यधिक रोचक है। पढ़ते-पढ़ते पाठक झूमने लगता है । आपश्री के कथाउपन्यासों का मूल स्रोत प्राचीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा जैन रास साहित्य रहा है। आपने उन प्राचीन कथाओं को आधुनिक रूप में प्रस्तुत किया है। गुरुदेव श्री की प्रत्येक कथा सरस व रोचक है। मानव स्वभाव व जीवन की यथार्थता के रंग विरंगे चित्र प्रस्तुत करती है। वे प्रबुद्ध पाठक के मानस को झकझोरती है कि तू कौन है ? तेरा जीवन विषयवासना के दलदल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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