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________________ १५२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ पर रखते ही जबान उसकी तीक्ष्ण स्पर्श से फटने लगती थी। महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज ने कहा-ये पूड़ियाँ इतनी कड़क हैं कि मेरे से चबाई नहीं जायेंगी। अतः सुबह तुम जो आधी रोटी ज्वार की लाये थे, वह मैं खा लेता हूँ। और तुम लोग पूड़ियाँ और कढ़ी का उपयोग कर लो। आपश्री ने कहा-गुरुदेव जैसा आपको अनुकूल हो वैसा कीजिए । हम लोगों के दांत मजबूत है । हम ये कड़क पूड़ियाँ चबा लेंगे। ज्यों ही महास्थविर जी महाराज ज्वार की रोटी का एक टुकड़ा लेकर मुंह में रखने लगे त्यों ही मन्दिर का खुला द्वार था, त्यों ही वह व्यक्ति आया और क्रोध से आँखें लाल करता हुआ बोला-तुम साधु हो या बदमाश हो? इस बूढ़े साधु को तो रूखी सूखी-रोटी खाने को दी है। और तुम सभी नौजवान माल खा रहे हो । उसने फुर्ती से वह आधी रोटी का टुकड़ा लिया और सामने खड़े कुत्ते को डाल दिया । उसने कहा-अब मैं नहीं जाऊंगा। और यहीं बैठा रहूँगा । गुरुदेव पूड़ी और कढ़ी को धर्म-रुचि अनगार की तरह खा रहे थे । गन्ध की तीव्रता से वमन की तैयारी हो रही थी। खाया नहीं जा रहा था। वह सामने उच्च आसन पर बैठा हुआ था। उसे समझाने से कुछ लाभ भी नहीं था। पाँच सन्तों ने वे दो पूड़ी मुश्किल से खायी थीं। तीन पूड़ियाँ और कढ़ी एक पात्र में रखी हुई थीं। जब उसने देखा आप नहीं खा रहे हैं तो झट से वह अपने मकान में गया और अपना बरतन ले आया और अपने हाथ से कढ़ी और बची हुई तीन पूड़ियाँ लेकर चल दिया । सायंकाल जब प्रतिक्रमण के बाद सत्संग के लिए बैठे तो वह लोगों को कह रहा था कि आज मैंने बाबाओं को ऐसा बढ़िया भोजन कराया कि शायद इन्होंने जिन्दगानी में कभी न किया होगा। और मैंने ऐसा पाठ सिखा दिया कि बूढ़े के साथ कभी यह शरारत नहीं करेंगे । गुरुदेव मन-ही-मन उसके भोलेपन पर मुस्करा रहे थे और सोच रहे थे आज का यह प्रसंग जीवन का अविस्मरणीय प्रसंग है। यही जीवन की कसौटी है। आज जीवन में साधना को कसने का सुन्दर अवसर मिला। इस प्रकार अनेकों बार लम्बे-लम्बे विहारों में कहीं पर मकान न मिलने पर, कहीं पर आहार न मिलने पर, और कहीं पर जैन श्रमण से परिचित न होने पर और कहीं पर, भाषा की विकट समस्या उपस्थित होने पर, ताड़नातर्जना के प्रसंग भी उपस्थित हुए। उस समय आपके अन्तर्मानस में किंचित् मात्र भी क्षुब्धता पैदा न हुई । किन्तु सदा यही सोचकर मन में आल्हादित होते रहे कि यह तो कुछ भी कष्ट नहीं है। भगवान महावीर को अनार्य देशों में कितने कष्ट दिये गये थे? तथापि भगवान उन कष्टों का मुस्कराते हुए स्वागत करते रहे। वैसे ही उस पथ पर हमें भी बढ़ना है । कष्ट से घबराना कायरता है। आपके जीवन के अन्य अनेक प्रसंग कष्ट-सहिष्णुता की दृष्टि से जीवन में घटित हुए हैं, किन्तु विस्तार भय से यहाँ नहीं दे रहा हूँ। आलोचक से प्यार जिस व्यक्ति के विमल विचारों में गहनता व मौलिकता होती है उन व्यक्तियों के विचारों की आलोचना भी सहज रूप से होती है। पर महान् व्यक्ति उनकी ओर ध्यान न देकर अपने सही लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ते रहते हैं। गुरुदेव श्री का दृढ़ मन्तव्य है कि व्यक्ति निन्दा से नहीं, निर्माण से निखरता है। जो उनकी आलोचना करते हैं या प्रशंसा करते हैं वे दोनों से समान प्रेम करते हैं । उनके निर्मल मानस पर आलोचना और स्तुति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्रशंसा करने वाले को वे कहते हैं-तुम्हारा स्नेह है इसीलिए ऐसा कहते हो और निन्दा और आलोचना करने वालों से कहते हैं- तुमने मुझे ठीक तरह नहीं समझा है। तुम्हारा विरोध मेरे लिए विनोद है । अनुकूल परिस्थिति में मुस्कराने वाले इस विश्व में बहुत मिलेंगे। पर प्रतिकूल परिस्थिति में भी जो गुलाब के फूल की तरह मुस्करा सके वही महान् कलाकार हैं। गुरुदेव श्री अपनी मस्ती में झूमते हुए कभी-कभी उर्दू का यह शेर गुनगुनाया करते हैं "मंजिलें-हस्ती में दुश्मन को भी अपना दोस्त कर । रात हो जाए तो दिखलावे, तुझे दुश्मन चिराग।" कितना सुन्दर, कितना मधुर और कितना सन्तुलित है आपका विचार । सन् १९६७ का वर्षावास बम्बई-बालकेश्वर में था। उस समय बालकेश्वर संघ की संस्थापना को लेकर कांदाबाड़ी-बम्बई संघ के अधिकारियों के मन में यह विचार चल रहा था कि इस संघ की संस्थापना हो जाने से कान्दावाड़ी संघ को प्रतिवर्ष सार्वजनिक कार्यों के लिए लाखों रुपयों की आमदनी होती है वह बन्द हो जायगी। वे उन व्यक्तियों का तो विरोध करने की स्थिति में नहीं थे। तथापि विरोध करना था। इसलिए उन्होंने बाल-दीक्षा के प्रसंग को लेकर विरोध किया। उनका विरोध अ-वैधानिक था, क्योंकि जो बाल-दीक्षा दी गयी थी, वह बम्बई से साठ मील दूर दी गयी थी, जो बम्बई महासंघ के अन्तर्गत नहीं था । और श्रमणसंघ का ऐसा कोई नियम नहीं था जिसमें बालदीक्षा का निषेध हो । श्रमणसंघ बनने के पश्चात् अनेकों बाल-दीक्षाएँ हो चुकी थी। आचार्य और प्रधानमन्त्री मुनिवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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