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________________ Jain Education International २७० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड परिशिष्ट १ कदम-कदम पर पदम खिले [द्वितीय खण्ड के पृष्ठ १८३ पर गुरुदेवश्री की विहारचर्या के संक्षिप्त वृत्त संस्मरण लिखे गये हैं। इस लेखन के पश्चात् जो बिहार हुआ, उस समय के कुछ संस्मरण यहाँ परिशिष्ट में अंकित हैं। -सम्पादक ] सन् १६७७ का बेंगलोर में यशस्वी वर्षावास व्यतीत कर कर्णाटक के ऐतिहासिक सांस्कृतिक स्थानों का अवलोकन करते हुए तमिलनाडु की राजधानी मद्रास संघ जो वर्षों से सद्गुरुदेव के वर्षावास हेतु अभ्यर्थना कर रहा था, पलक पांवड़े बिछाकर अपने यहाँ पधारने की राह देख रहा था, सद्गुरुदेव जो दया के देवता हैं वे उनकी प्रार्थना को कैसे टाल सकते थे ? उनकी अभ्यर्थना को सन्मान देकर गुरुदेवश्री मद्रास पधारे । मद्रास दक्षिण भारत का प्रमुख नगर है, जो समुद्र के किनारे बसा हुआ है। भारत के प्राचीन साहित्यकारों ने कुबेर का निवास उत्तर में माना है, पर मुझे लगा कि उत्तर की अपेक्षा भी दक्षिण में वर्तमान युग में कुबेर का निवास है । यहाँ पर जैन परिवार जितने समृद्ध हैं उतने उत्तर भारत में देखने को नहीं मिलते। मद्रास में सैकड़ों जैन परिवार कोट्याधीश हैं। उनके आँगन में विराट् वैभव अठखेलियाँ कर रहा है। एक बार तथागत बुद्ध ने वैशाली के लिए कहा था कि स्वर्ग की अलकापुरी देखनी हो तो वैशाली को देखें तथा देव और देवियाँ देखनी हों तो वैशाली के नर-नारियों को देखें वही साक्षात् पृथ्वी पर स्वर्ग है तो मैं कह सकता हूँ कि मद्रास भी वर्तमान युग की स्वर्गभूमि है । वहाँ के निवासी जहाँ भौतिक दृष्टि से समृद्ध हैं वहाँ वे आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि से भी पीछे नहीं हैं । प्रस्तुत वर्षावास में गुरुदेवश्री के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक पावन प्रवचनों ने जन-जीवन में ऐसी जागृति पैदा की जो देखते ही बनती थी । फूल से सुकुमार बालक और बालिकाओं में ही नहीं, युवक और युवतियों में तथा वृद्धों में जो धार्मिक-साधना की बाढ़ आयी वह प्रेक्षणीय थी । वे तप-जप में ही नहीं, दान और शील में भी अपने मुस्तैदी कदम आगे बढ़ा रहे थे । स्थानीय संस्थाओं को भी दान के शीतल सलिल से सिंचन किया जिससे वे लहलहा उठीं । क्या ज्ञान के केन्द्र और क्या स्वास्थ्य के केन्द्र सभी को खुलकर दान प्राप्त हुआ। राजस्थानी समाज ही नहीं, गुजराती समाज भी इस कार्य में आगे बढ़ रहा था। सभी के हृत्तंत्री के सुकुमार तार झनझना रहे थे कि मद्रास में यों तो अनेक सन्त-गण पधारे पर उपाध्यायश्री की वाणी में जो ओज और साधना में तेज है वह अन्य सन्तों में देखने को नहीं मिला, वस्तुतः ये पारस पुरुष हैं इनके सम्पर्क में जो भी आता है वह सच्चा सोना बन जाता है । पूज्य गुरुदेवश्री ने अपने एक ओजस्वी प्रवचन में कहा कि सम्राट् चन्द्रगुप्त को जो सोलह महास्वप्न आये थे उसमें एक स्वप्न था कि समुद्र का पानी तीन दिशाओं में सूख गया है पर दक्षिण दिशा में कुछ पानी अवशेष है । इस स्वप्न का फल बताते हुए श्रुतकेवली भद्रबाहु ने कहा कि दक्षिण में धर्म रहेगा। अतः दक्षिण निवासियों को धर्म की दृष्टि से आगे बढ़ना है। मुझे आह्लाद है कि दक्षिण भारत अभी तक सम्प्रदायवाद से ऊपर उठा हुआ है । यह सत्य है। कि उत्तर में जितनी भी सम्प्रदायें हैं उन सम्प्रदायों के प्रमुख लोग दक्षिण में रहते हैं पर यहाँ की भूमि में ही ऐसा असर है कि उनमें सम्प्रदायवाद की बीमारी के कीटाणुओं का असर न हो सका है। मैं चाहता हूं कि दक्षिण भारत अपने इस आदर्श को सदा बनाये रखे और उसके लिए यहाँ पर बिन साम्प्रदायिक स्वाध्याय संघ की आवश्यकता है जो घर-घर में स्वाध्याय की निर्मल ज्योति जाग्रत कर सके । सद्गुरुदेव के पावन उपदेशों ने जादू का असर किया और दक्षिण भारतीय स्वाध्याय संघ की संस्थापना हो गयी । संस्थापना ही नहीं हुई अपितु मद्रास संघ के कुशल संचालक सेठ मोहनमलजी चोरडिया के नेतृत्व में वह संस्था स्वल्प समय में ही विकास के पथ पर बढ़ गयी और वह दिन दूर नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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