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________________ . ७४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ साधना की मंगल मुस्कराहट डा. संगमलाल पाण्डेय, इलाहाबाद नवम्बर १९७५ में पूना विश्वविद्यालय में जनदर्शन पावन उपदेश ने सोयी हुई आत्मा को जगा दी और मैं पर एक संगोष्ठी हुई थी। उस संगोष्ठी में मुझे भी एक साधु बन गया। निबन्ध पढ़ने का सौभाग्य संप्राप्त हुआ। उस संगोष्ठी में मैंने निवेदन किया-मुनिधी जी आप ब्राह्मण थे, तब जनविद्या के मूर्धन्य-मनीषी पं० दलसुख मालवणिया, जैन क्यों हो गये? ब्राह्मण धर्म के साधु-संन्यासियों के कैलाशचन्द्र शास्त्री, दरबारीलाल कोठिया, ईश्वरचन्द्र सम्पर्क में आप क्यों नहीं आये ? आपने ब्राह्मणधर्म का प्रभृति अनेक विद्वान् उपस्थित हुए थे। उनसे मेरा सम्पर्क परित्याग क्यों कर दिया ? हआ। साथ ही इस संगोष्ठी में श्वेताम्बर जैन श्रमण व मुनिधी ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि जैन श्रमणियों के भी दर्शनों का सौभाग्य मिला। उन सभी के परिवारों से मेरा सम्पर्क था, जैन समाज की साधु-निष्ठा प्रमुख थे उपाध्याय राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोगी श्री और जैन मुनियों के पावन जीवन ने मुझे अत्यधिक प्रभापुष्कर मुनि जी । उन्होंने भी इस संगोष्ठी में भाग लिया वित किया । अतः मैंने जैन श्रमण के व्रत ग्रहण किये और था। उनमें अध्यात्म-साधना तथा वैदुष्य का मणि-काँचन- तभी से मैं साधना में संलग्न हूँ । मेरे लिए जातिवाद, पंथसंयोग देखकर मैं अत्यधिक प्रभावित हआ। वाद का प्रश्न नगण्य है। मैं अध्यात्म का अन्वेषक हूँ। सन्ध्या का समय था। मेरे परम स्नेही मित्र डाक्टर ब्राह्मणों ने हजारों की संख्या में जैनधर्म ग्रहण किया है। कमलचन्द सोगानी जो प्रस्तुत संगोष्ठी में आये थे, उन्होंने भगवान महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मा, मुझसे कहा कि आज हम पुष्कर मुनि जी का सत्संग करने आदि भी जाति से ब्राह्मण ही थे। ब्राह्मणों ने जैनधर्म में चलें । मैंने उनके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। हम प्रव्रज्या ग्रहण कर अद्भुत क्रान्ति की है। आचार्य हरिभद्र, दोनों उस स्थान पर गये जहाँ पुष्कर मुनि जी अपने शिष्यों आचार्य सिद्धसेन दिवाकर आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण सहित अवस्थित थे । ज्योंही हम वहाँ पहुँचे त्योंही हमने हैं । पन्थ भले ही पृथक् हो, किन्तु सत्य एक है, चाहे जिस देखा पण्डित दलसुख मालवणिया, डा० सागरमल जैन, परम्परा में रहे । यदि साधना की जाय तो जीवन का डा० ब्रजनारायण शर्मा, प्रभृति स्नेही साथी गण वहां बैठे अपूर्व आनन्द उपलब्ध हो सकता है। हैं। वातावरण प्रशान्त था । सर्वप्रथम मुनिश्री जी ने मैंने कुछ आगे बढ़कर मुनिश्री से पूछा-आप कौनसी हमारा परिचय पूछा । मैंने संक्षेप में अपना परिचय दिया। साधना करते हैं ? यदि वह गोप्य न हो तो बताने का परिचय देते ही मुझे प्रतीत हुआ कि मुनिश्री जी की अनुग्रह करें। अपार कृपा मुझे प्राप्त हो गयी है। मेरा उनका परिचय मुनिश्री ने अपनी सहज मस्ती में कहा कि यहाँ छिपाने तो उसी क्षण हुआ था, पर मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था योग्य कुछ भी नहीं है । जो है वह स्पष्ट है। मैं नवकार कि हमारा परिचय पुराना ही नहीं, अपितु बहुत ही पुराना महामंत्र का जप करता हूँ। यह महामंत्र अत्यन्त प्रभावहै। मैंने करबद्ध होकर विनम्र मुद्रा में मुनि श्री जी का शाली है। इसमें व्यक्ति की उपासना नहीं । किन्तु सद्गुणों परिचय पूछा । मुनिश्री ने कहा मेरा जन्म एक ब्राह्मण की उपासना की गयी है । यह महामन्त्र सम्पूर्ण जैन समाज परिवार में हुआ। मेरे पिता जागीरदार थे, मेरी दो में मान्य है। माताएँ थीं। मैं अपनी माँ के पास रहता था। और उसके मैंने कहा मुनिश्री जी ! मैं भी गायत्री मन्त्र का जप निधन होने के पश्चात् सद्गुरुदेव का सत्संग मिला । उनके करता हूँ । बताइये वह उचित है या नहीं। ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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