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________________ . १७८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड कहा है और उपर्युक्त प्रक्रिया करने का आदेश दिया है। इससे यह फलित होता है कि विपरीतकरणी मुद्रा का विकसित रूप शीर्षासन है । वही 'पूर्णविपरीतकरणीमुद्रा' है। (८) खेचरीमुद्रा अथवा जिह्वाबन्धमुद्रा-आरम्भ का सामान्य साधक इस खेचरीमुद्रा का अभ्यास नहीं कर सकता। हाँ, जिस साधक का प्राणोत्थान हो चुका है और जो शक्तिचालनमुद्रा का उत्तमरीति से अभ्यास करता है वही खेचरीमुद्रा के निकट जा सकता है। खेचरीमुद्रा किसी भी आसन में की जा सकती है। उसमें केवल रसना को तालु के विवर में आये हुए छिद्रदशमद्वार में प्रविष्ट करके दृष्टि को भूमध्य में स्थिर करना पड़ता है। जो साधक योगशास्त्रों से खेचरीमुद्रा का वर्णन पढ़कर अथवा असिद्ध गुरु के उपदेश द्वारा रसना के शिराबन्ध को किसी शस्त्र द्वारा काटकर खेचरीमुद्रा का अभ्यास करता है वह कदापि समाधि सिद्ध नहीं कर सकता तथा उसको किसी प्रकार की योगसिद्धि भी प्राप्त नहीं होती। आचार्यानुग्रह द्वारा जिस साधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है वही खेचरीमुद्रा का आविष्कार कर सकता है। आरम्भ में योगाग्नि के बल से रसना के नीचे का शिराबन्ध कटता है। तत्पश्चात् चालन और दोहन की प्राकृतिक क्रियाएँ गतिशील होती हैं। अन्त में रसना कपालकुहर-दशमद्वार में • प्रवेश करने के लिए प्रयास करती है और उसमें विजय पा लेती है। जब सबीज समाधि के अन्त में वज्रोली अथवा योनिमुद्रा का आविर्भाव होता है तब रसना में शिश्न के समान प्रबल जागृति आती है और वह अपान को ऊर्ध्वगामी बनाकर ब्रह्मग्रन्थि का भेदन करती है, तप्तश्चात योगी ऊर्ध्वरेता बनता है। खेचरी की सिद्धि के अनन्तर योगी को अमृतपान का शुभावसर संप्राप्त होता है। परिणामत: देह के पुराने परमाणुओं का विनाश होता है और उसके स्थान पर नूतन परमाणुओं का सर्जन होता है और वे ही दिव्यदेह का निर्माण करते हैं। दिव्यदेह की प्राप्ति के पश्चात् ही निर्बीज समाधि के मार्ग का उद्घाटन होता है। खेचरीमुद्रा का सम्बन्ध मूलाधार, विशुद्ध एवं आज्ञाचक्र के साथ है। (६) महावेधमुद्रा-महाबन्धमुद्रा की स्थिति में बैठिए । तदनन्तर खेचरी मुद्रा द्वारा पूरक करके और दृष्टि को दृढ़तापूर्वक भ्रूमध्य में स्थापित करके मस्तक को आकाश की ओर ऊँचा रखिए। पश्चात् दोनों हाथों को फैलाकर रखें, शरीर को आगे झुकावें और अन्त में दोनों हाथों की हथेलियों को भूमि पर स्थापित करें। ऐसा करने पर नितम्ब कुछ ऊपर की ओर उठेगे। अन्त में मूल स्थिति में आ जाना चाहिए और किसी भी एक पार्श्व पर हाथ की मुट्ठी से प्रहार करना चाहिए। जब मूलबन्धमुद्रा द्वारा प्राण-अपान का ऐक्य होता है तब प्लाविनी प्राणायाम द्वारा साधक योगी के दोनों पावों में वायु भर जाती है। उस समय जब वह किसी भी एक पार्श्व पर हाथ की मुट्ठी से बलपूर्वक प्रहार करता है, तब तत्क्षण उसके मख द्वारा 'ह' जैसी गर्जना स्वाभाविक रीति से निकलती है। यहाँ यह स्मरण रहे कि महामद्रा, महाबन्धमुद्रा और महावेधमुद्रा का अभ्यास एक साथ करना पड़ता है। इस मुद्रा का सम्बन्ध आज्ञाचक्र के साथ है। यह मुद्रा भी सबीज समाधि की अन्तिम भूमिका में होती है, अत: सामान्य साधक के लिए निरुपयोगी है। (१०) वज्रोली अथवा योनिमुद्रा-मूत्रमार्ग को निर्मल करने के लिए रबड़ के कैथेटर को तेल लगाकर लिंग के छिद्र में धीरे-धीरे चढ़ाना चाहिए। आरम्भ में एक इंच, तदनन्तर क्रमश: अभ्यास बढ़ाते हुए दस से बारह इंच तक चढ़ाना चाहिए। इस क्रिया का उद्देश्य केवल मूत्रमार्ग की शुद्धि ही है। मूत्रमार्ग से दूध चढ़ाना और स्त्री-समागम करके स्खलित वीर्य को पुनः आकर्षित करने की चेष्टा करना इसका नाम वज्रोली नहीं है। यह एक बड़ा भारी भ्रम है । सिद्धासन बांधकर और प्राणापान को मस्तक पर चढ़ाकर वाम-दक्षिण नेत्रों को तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों से, वाम-दक्षिण कणों को दोनों अंगूठों से, नासिका के वाम-दक्षिण छिद्रों को दोनों अनामिका अंगुलियों से और दोनों ओष्ठों के वाम-दक्षिण भागों के दोनों कनिष्ठिका अंगुलियों से दबाकर भ्रूमध्य में दृष्टि और चित्तवृत्ति को स्थिर करे और अन्त में योनिमुद्रा द्वारा गुह्य न्द्रिय को भीतर सिकोड़े। जब तक यह मुद्रा सिद्ध नहीं हो पाती यानी वीर्य ऊर्ध्वगामी नहीं बन पाता तब तक उसके सामर्थ्य की प्रतीति नहीं होती । मूलबन्ध सिद्ध होने पर ही योनिमुद्रा सिद्ध होती है। प्राणापान के ऐक्य के लिए योगी को भगीरथ प्रयत्न करना पड़ता है। जो योगी योनिमुद्रा सिद्ध कर सकता है वही सबीज समाधि को सिद्ध करके योगाग्निमय दिव्यदेह की संप्राप्ति कर सकता है। इस मुद्रा का सम्बन्ध मूलाधार एवं सहस्रार चक्र के साथ है। यह मद्रा सबीज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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