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________________ कुण्डलिनी योग : एक विश्लेषण १७७ . उपर्युक्त भूमिका में प्राण सुप्त कुण्डलिनी को बार-बार जगाता है, किन्तु वह प्राण को बार-बार पराजित करके पुनः सो जाती है। जब प्राण विजय प्राप्त करता है, तब कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होकर साधक को सबीजसमाधि प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है और सुषुम्ना के मुख पर से खिसक जाती है। तदनन्तर योनिमुद्रा की बारी आती है। बिना शक्तिचालनमुद्रा के खेचरीमुद्रा और योनिमुद्रा सिद्ध नहीं होती। इस मुद्रा का सम्बन्ध स्वाधिष्ठान चक्र के साथ है । अन्त में जब वह सिद्ध हो जाती है तब उसका सम्बन्ध सहस्रार के साथ हो जाता है। (४) महाबन्धमुद्रा-सिद्धासन अथवा मुक्तासन बाँधना अर्थात् दक्षिणपाद को मोड़कर उसकी पाष्णि द्वारा सीवनी को दबाना, और वामपाद को मोड़कर उसकी पाणि द्वारा लिंगमूल को दबाना, तदनन्तर त्रिबन्धसहित प्राणायाम का अभ्यास करना इसको 'महाबन्धमुद्रा' कहते हैं। इस महाबन्धमुद्रा में जो प्राणायाम किया जाता है उसकी संज्ञा सगर्भ अथवा सबीज प्राणायाम है। इस भूमिका में साधक प्राणायामसहित शक्तिचालनमुद्रा, खेचरीमुद्रा, मूलबन्धमुद्रा, उड्डीयानबन्धमुद्रा और जालंधरमुद्रा का स्वाभाविक अभ्यास करता है, फलतः वह बिन्दु को कुछ अंशों में जीत सकता है। इस मुद्रा का सम्बन्ध मूलाधार एवं सहस्रारचक्र के साथ है। यह महाबन्धमुद्रा सबीज समाधि की उपान्त्य भूमिका में होती है। आरम्भ का साधक उसकी सम्यक् साधना नहीं कर पाता । उसके लिए यह मुद्रा निरुपयोगी है। (५) उड्डीयानबन्धमुद्रा-दीर्घ रेचक करके नाभि के ऊपर-नीचे के भागों को मेरुदण्ड की ओर आकृष्ट करना, उसको 'उड्डीयानबन्धमुद्रा' कहते हैं । मूलबन्धमुद्रा, उड्डीयानबन्धमुद्रा और जालंधरमुद्रा-ये तीनों मुद्राएँ सर्वप्रथम सिद्धासन का आश्रय लेकर सिद्ध की जाती हैं । तदनन्तर उनको किसी भी आसन में किया जा सकता है। जब इन तीन मुद्राओं को क्रमश: एक साथ किया जाता है, तब उस अवस्था को 'त्रिबन्ध' कहते हैं। यह त्रिबन्ध ही तन्त्रों की भावमयी भाषा में शिवजी अथवा भगवती शक्ति का 'त्रिशूल' है। इस त्रिबन्ध द्वारा जब जिह्वाबन्धमुद्रा-खेचरीमुद्रा सिद्ध हो जाती है, तब त्रिबन्ध गोण हो जाते हैं। सामान्य साधकों को इन मुद्राओं का अभ्यास प्राणायाम का उत्तम अभ्यास करके ही करना चाहिए। इस मुद्रा का सम्बन्ध मणिपूर एवं सहस्रारचक्र के साथ है। (६) जालंधरबन्धमुद्रा-कण्ठ को सिकोड़कर मस्तक को नीचे की ओर झुकाना और ठोड़ी को वक्ष पर दृढ़तापूर्वक दबाना उसको 'जालंधरबन्धमुद्रा' कहते हैं। यह मुद्रा किसी भी आसन में पूरक अथवा रेचक के अन्त में की जाती है । पूरक के अन्त में अन्तःकुम्भक और रेचक के अन्त में बाह्यकुम्भक किया जाता है। इस मुद्रा के अभ्यास से प्राण पश्चिममध्यमार्ग का प्रवासी बनकर अन्त में सहस्रारचक्र में सुस्थिर होता है। भ्रामरी एवं मूर्छा नामक प्राणायाम भी इसके अभ्यास द्वारा सिद्ध होते हैं। (७) विपरीतकरणीमुद्रा-लम्बे सोकर रेचक करते हुए दोनों भुजाओं के बल शरीर का कटिपर्यन्त का भाग ऊंचा करना, वाम-दक्षिण हाथों के पंजों से पृष्ठ भागों को पकड़कर ऊँचा रखना और दृष्टि को नाभि की दिशा में तथा चित्त को मणिपूरचक्र में स्थापित करना। अन्त में रेचक समाप्त होने पर कुम्भक करना—यह 'विपरीतकरणी मुद्रा' है। . यह विपरीतकरणीमुद्रा सर्वांगासन से बहुत अंशों में समान है, परन्तु दोनों में विषमता भी है। सर्वांगसन में पाँव और उसके ऊपर के शरीर को समान्तर रखा जाता है, जबकि विपरीतकरणीमुद्रा में केवल पांव को ही हाथ के समान्तर रखा जाता है। सर्वांगासन सिर्फ आसन ही होने से उसमें कोई विशेष क्रिया नहीं की जाती, परन्तु विपरीतकरणी मुद्रा होने से उसमें गुह्यांग को बार-बार भीतर सिकोड़ा जाता है। "शिवसंहिता' में शीर्षासन को विपरीतकरणी ३१-यम- २-नियम । ३-आसन ४-प्राणायाम ४५-प्रत्याहार ६-धारणा 40-ध्यान A८-समाधि -ईश्वरपद प्राप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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