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________________ Jain Education International १७२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ नवम खण्ड सकाम होते हैं, वे अपने अपूर्णधर्म द्वारा काम और अर्थ की प्राप्ति करते हैं और जो साधक निष्काम होते हैं वे अपने पूर्णधर्म द्वारा मोक्ष की प्राप्ति करते हैं । अन्य शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सकाम साधक प्रेयपंथी यानी भोगपंथ का प्रवासी होता है और निष्काम साधक श्रेयपंथी यानी योगपंथ का प्रवासी होता है। इस प्रकार योग के दो अधिकारी हैं- संसारी एवं संन्यासी । जब तक भोग का आकर्षण विनष्ट नहीं होता तब तक साधक श्रेयपंथ का प्रवासी नहीं बन सकता । ३. योग के प्रकार मनुष्य को बन्धन और मुक्ति के दुःख-सुख की सामान्य अनुभूति तो निरन्तर ही होती रहती है। वह जाग्रतावस्था में विषयों के सम्पर्क में आता है, फलतः उसके मन में सुख-दुःख का आविर्भाव और तिरोभाव होता रहता है । सुषुप्तावस्था में विषयों का सम्पर्क नहीं रह पाता इससे उसको उसमें सुख-दुःख का अभाव प्रतीत होता है । यह तो उसके नित्य के अनुभव का वृतान्त है। इससे वह सरलतापूर्वक अनुमान कर सकता है कि मन की अन्तर्मुखता ही मुल, शान्ति और मुक्ति का अमोघ उपाय है । चित्तवृत्ति का निरोध अर्थात् निर्बीज समाधि विश्व के समस्त योगों का अन्तिम परिणाम - पूर्णविराम है। जिस योग में इन्द्रियनिग्रह अथवा मनोनिग्रह नहीं है उसको योग कहना भ्रमणा ही है । ईश्वर सनातन है, अतः उसकी प्राप्ति का योग भी सनातन है । सनातन यानी अविनाशी, अमर अथवा शाश्वत । योग ही विश्वधर्म, ईशधर्म, मानवधर्म, सर्वधर्म, सत्यधर्म अथवा सनातनधर्म है । योग के प्रकार नहीं हो सकते किन्तु मनुष्य में प्रकृतिभेद, साधनभेद, साधनाभेद इत्यादि असंख्य भेद होते हैं। इस प्रयोजन से योग में भी भेदों की भ्रान्ति होने लगती है । प्रकृति त्रिगुणमयी होने से साधकों में कोई सात्त्विक, कोई सात्त्विक - राजसी, कोई राजसी - तामसी तो कोई तामसी होता है, फलतः तर्कप्रधान साधक ज्ञानयोग, भावप्रधान साधक भक्तियोग और कर्मप्रधान साधक कर्मयोग की साधना करता है । श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा है- "मैंने श्रेय साधना के लिए ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग -इस प्रकार तीन उपायों का उपदेश किया है। इन उपायों के अतिरिक्त मेरी प्राप्ति का अन्य एक भी उपाय नहीं है | ११ योगवासिष्ठ में कहा गया है- " योगरूप पक्षी के ज्ञान और भक्तिरूप दो पंख हैं । उनके बिना वह व्योम विहार नहीं कर सकता है।" बिना ज्ञान के कर्म-भक्ति, बिना कर्म के ज्ञान-भक्ति और बिना भक्ति के ज्ञान-कर्म विफल ही होते हैं । ज्ञानी ज्ञान को ही प्रधानता प्रदान करता है और कर्म एवं भक्ति को गौण मानता है, योगी कर्म को प्रधानता प्रदान करता है और ज्ञान एवं भक्ति को गौण मानता है तथा भक्त भक्ति को ही प्रधानता प्रदान करता है और ज्ञान एवं कर्म को गौण मानता है । इस तथ्य को अधिक स्पष्ट करने के लिए यह कह सकते हैं कि ज्ञानयोग में ज्ञान सेनापति और कर्म एवं भक्ति सैनिक, कर्मयोग में कर्म सेनापति और ज्ञान एवं भक्ति सैनिक तथा भक्तियोग में भक्ति सेनापति और ज्ञान एवं कर्म सैनिक हैं । योग एक ही है, परन्तु उसके साधन असंख्य हैं। इस प्रयोजन के साधनों की दृष्टि के कारण एक ही योग के अगणित नाम संप्राप्त होते हैं । ब्रह्मयोग, अक्षरब्रह्मयोग, शब्दयोग, ज्ञानयोग, सांख्ययोग, राजयोग, पूर्वयोग, अष्टांगयोग, अमनस्कयोग, असंप्रज्ञातयोग, निर्बीजयोग, निर्विकल्पयोग, अचेतनसमाधि, मनोनिग्रह इत्यादि नाम ज्ञानयोग के पर्याय हैं। संन्यासयोग, वृद्धियोग, संप्रज्ञातयोग, सविकल्पयोग, हठयोग, हंसयोग, सिद्धयोग, क्रियायोग, तारकयोग, प्राणोपासना, सहजयोग, शक्तिपात, तन्त्रयोग, बिन्दुयोग, शिवयोग, शक्तियोग, कुण्डलिनीयोग, पाशुपतयोग, कर्मयोग, निष्काम कर्मयोग, इन्द्रियनिग्रह इत्यादि नाम कर्मयोग के पर्याय हैं । कर्मसमर्पण योग, चेतनसमाधि, महाभाव, भक्तियोग, प्रेमयोग, प्रपत्तियोग, शरणागतियोग, ईश्वरप्रणिधान, अनुग्रहयोग, मन्त्रयोग, नादयोग, सुरत-शब्द-योग, लययोग, जपयोग इत्यादि नाम भक्तियोग के पर्याय हैं । इस प्रकार 'योग' शब्द में समस्त योगों का समावेश हो जाता है । कर्मयोग प्रथम सोपान और ज्ञानयोग अन्तिम सोपान है। जब तक इन्द्रियनिग्रह नहीं हो पाता अर्थात् इन्द्रियाँ अन्तर्मुख नहीं होतीं, तब तक मनोनिग्रह नहीं किया जा सकता। यदि इन्द्रियनिग्रह किये बिना ही मनोनिग्रह का अभ्यास किया जाता है तो मन के विक्षेपों और ज्ञानेन्द्रियों के मलों का प्रतिकार करने में ही समय का अपव्यय होता रहता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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