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________________ कुण्डलिनी योग : एक विश्लेषण १७१ . O - - - कुण्डलिनी योग : एक विश्लेषण .... योगाचार्य स्वामी कृपाल्वानन्द है। इनमें मुख्य तीन पर १: योग की परिभान ण की- १. योग की परिभाषा और उसकी स्पष्टता योग की परिभाषाएँ अगणित हैं । इनमें मुख्य तीन परिभाषाएँ अत्यन्त अर्थपूर्ण और प्रिय प्रतीत होती हैं । दो परिभाषाएँ हैं श्रीकृष्ण की-(१) “समता ही योग है।"१ (२) "कर्माचरण में निपुणता का नाम योग है। तीसरी परिभाषा है महर्षि पतञ्जलि की-"चित्तवृत्तियों के निरोध का नाम योग है।"3 श्रीकृष्ण की दो परिभाषाएँ इन्द्रियनिग्रह की प्रबोधक हैं और महर्षि पतंजलि की परिभाषा मनोनिग्रह की प्रबोधक है। यदि इन तीन परिभाषाओं का समन्वय करके एक ही परिभाषा बनायी जाय तो इसमें इन्द्रिय-निग्रह और मनोनिग्रह का समावेश हो जायेगा। योगकुण्डल्युपनिषद् में कहा है-“चित्त की अस्थिरता के दो कारण हैं-पहला कारण है वासना और दूसरा है वायु । इनमें से यदि एक का विनाश होता है तो दूसरे का भी विनाश हो जाता है।" वासनाएं मन में होती हैं और वायु समस्त शरीर में । श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में दो प्रकार की निष्ठाओं का निर्देश किया है-ज्ञाननिष्ठा एवं कर्मनिष्ठा ।' ज्ञाननिष्ठा का सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों के साथ और कर्मनिष्ठा का सम्बन्ध कर्मेन्द्रियों* के साथ है। इस प्रकार निष्ठाएँ दो ही हैं, अतएव योग भी दो प्रकार के ही हो सकते हैं-ज्ञानयोग और कर्मयोग । ज्ञानयोग में मन को माध्यम बनाना पड़ता है और कर्मयोग में प्राणवायु को। "तो क्या भक्तियोग का अस्तित्व ही नहीं है ?" भक्तियोग का अस्तित्व है। बिना प्रेम के ज्ञान एवं कर्म विफल ही रहते हैं । प्रेम तो योग की आत्मा ही है। वह ज्ञान एवं कर्म दोनों में अनुस्यूत है, इस कारण उसे पृथक नहीं दिखाया गया। ज्ञानमार्गी स्वामीभाव से उपासना करता है, अतः वह कर्म की उपेक्षा करता है और भक्त सेवकभाव से उपासना करता है, अतः वह कर्म की अपेक्षा रखता है। ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी साधक से भिन्न एक अन्य प्रकार का भी साधक होता है। वह विज्ञानप्रिय होता है। वह ईश्वर-निरीश्वर के सिद्धान्त को तटस्थता की दृष्टि से देखता हुआ कर्म करता है। उसे कर्मयोगी कहते हैं। सकाम कर्म की साधना करने वाला साधक भी कर्मयोगी कहलाता है। भोगकर्म अयज्ञार्थकर्म है अतः वह बन्धन का और योगकर्म यज्ञार्थकर्म है, अतः मुक्ति का कारण है। साधक ज्ञानमार्गी हो या कर्ममार्गी किन्तु उसके लिए कर्म अनिवार्य है। बिना कर्म किये कोई भी एक क्षण नहीं रह सकता।' ऐसी अवस्था में ज्ञानी बिना कर्म किये कैसे रह सकता है ? हाँ; ज्ञानी भी कर्म तो करता ही है किन्तु वह स्वयं को कर्ता नहीं मानता, क्योंकि प्रकृति ही कर्मों की जननी है। उसी प्रकार भक्त भी कर्म तो करता ही है किन्तु वह स्वयं को कर्ता नहीं कारण मानता है, क्योंकि ईश्वर ही कर्मों को कराता है।' अकर्तृत्व ही अकर्म है, यज्ञार्थ कर्म है। विचार सूक्ष्मकर्म है और आचार स्थूलकर्म। सूक्ष्मकर्म ही स्थूल का कारण होता है। विचार वासनाओं पर और वासनाएं विषय-संसर्ग पर आधारित हैं, अतः वासनाओं का अभाव और वायु का स्थैर्य ही चित्त का अभाव है। इसलिए योगसाधक सर्वप्रथम प्राण को ही वश करे।" २. योग का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष--इन चारों पुरुषार्थ की सिद्धि योग का प्रयोजन है। साधकों में जो साधक वैदिक तथा अन्य दर्शनों में कर्मेन्द्रियाँ पृथक से मानी गयी हैं; जबकि जैनदर्शन के अनुसार कर्मेन्द्रियों का अन्तर्भाव स्पर्शेन्द्रिय में ही हो जाता है। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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