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________________ जप-साधना १६६ . जैसे अन्न भण्डार में पड़े हुए अन्न में अंकुर प्रस्फुटित नहीं होता, किन्तु वही अन्न जब कृषक खेत में वपन करता है, उसे पानी, खाद, हवा और प्रकाश आदि सामग्री की सम्प्राप्ति होती है तो वह नन्हा-सा बीज विराट पौधे का रूप धारण कर लेता है और अगणित अन्न के दाने प्रदान करता है। हमारे अन्तःकरण में भी अनन्त सद्गुणों के बीज भरे पड़े हैं। जब तक योग्य सामग्री उपलब्ध नहीं होती तब तक वे प्रकट नहीं हो सकते। हमारे अन्तःकरण में नमस्कार महामन्त्र के प्रति हार्दिक सद्भावना, भक्ति जागृत होगी तब उन सद्गुणों को विकसित होने का अवसर प्राप्त होगा। नमस्कार महामन्त्र के जाप से आत्मा में रहे हुए अनन्त सद्गुणों को प्रकट होने का अवसर मिलता है और अन्त में जीव सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर अनन्त आनन्दरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। एतदर्थ ही नमस्कार महामन्त्र की चूलिका में बताया है कि पंच परमेष्ठी को किया गया नमस्कार सर्वपापों को नष्ट करता है और विश्व के सर्वमंगलभूत पदार्थों में वह सबसे श्रेष्ठ मंगलरूप है। इस विराट विश्व में जितने भी दुःख, क्लेश, अशांति, रोग, शोक आदि कष्ट हैं वे सभी पाप से उत्पन्न होते हैं। पाप के नष्ट होने से पाप के फलरूप दुःखों का भी स्वत: नाश हो जाता है और अन्त में आत्मा का आनन्द ही अवशेष रहता है। नियमित समय पर निरन्तर जाप का अभ्यास करने से साधक को ऐसा अनुभव होने लगता है कि जिन दोषों की पहले प्रधानता थी वे क्रमशः क्षीण हो रहे हैं; और सद्गुण विकसित हो रहे हैं। नमस्कार महामन्त्र के जाप से मन में अपार प्रसन्नता पैदा होती है जो प्रसन्नता कभी भी नष्ट नहीं होती। जब मानव के मन में प्रसन्नता अंगड़ाइयाँ लेती है तब उसके चित्त की संक्लिष्टता नष्ट हो जाती है। संसार के अधिकांश प्राणी मन की प्रसन्नता के अभाव में ही विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव कर रहे हैं। नमस्कार महामन्त्र के जाप से जो प्रसन्नता समुत्पन्न होती है उस प्रसन्नता का वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे जंगल में भी मंगल प्रतीत होता है और चक्रवर्ती सम्राट से भी अधिक वह आनन्द का अनुभव करता है। जहाँ मन में प्रसन्नता होती है वहाँ सुख-शांति की बंशी बजने लगती है। मानव-मन के दो मुख्य दोष हैं—पहला, अप्रसन्नता और दूसरा, चंचलता। जब मानव के अन्तर्मानस में स्नेह सद्भावना का समुद्र ठाठे मारने लगता है तो अप्रसन्नता स्वतः ही नष्ट हो जाती है। वह स्वार्थ से हटकर परमार्थ की ओर प्रवृत्त होता है। परमेष्ठी के जाप में वह सामर्थ्य है कि अप्रसन्नता उसके सामने आ ही नहीं सकती। उसके जीवन में राग-द्वेषरूपी दोष नष्ट हो जाने से सदा प्रसन्नता का ही साम्राज्य रहता है। मन का दूसरा दोष चंचलता है । बन्दर की तरह मन भी एक क्षण स्थिर नहीं रहता । उसे ज्यों-ज्यों स्थिर करने का प्रयास किया जाता है त्यों-त्यों वह अधिक चंचल बनता जाता है। नमस्कार महामन्त्र के जाप से साधक के अन्तर्मानस में ये विचार अंगड़ाइयाँ लेने लगते हैं कि सांसारिक पदार्थ सुख के कारण नहीं किन्तु दु:ख के कारण हैं । अतः उसकी मिथ्या आसक्ति उन पदार्थों से हटने लगती है, परिणामस्वरूप मन स्थिर होने लगता है। अतः नमस्कार के जाप का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। शांतचित्त से बहुमानपूर्वक प्रातः व सन्ध्या के समय एकान्त शान्त स्थान पर बैठकर प्रसन्नमन से जाप करना चाहिए। जाप करते समय ऊन के आसन पर बैठना चाहिए। आसन का रंग श्वेत होना चाहिए। माला भी श्वेत सूत की होनी चाहिए। वस्त्र भी रंग-बिरंगे न होकर श्वेत, शुद्ध व खादी के होने चाहिए। श्वेत वर्ण शुक्लध्यान का प्रतीक है। शांति के कार्यों के लिए आचार्यों ने विशेषरूप से उसका विधान किया है। जाप करते समय मुंह पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की तरफ रखना चाहिए। कुछ साधकों को साधना के प्रारम्भ में बाह्य आलंबन की आवश्यकता होती है किन्तु कुछ समय के पश्चात् शरीर में ही हृदयकमल आदि स्थानों में कल्पना से नमस्कार के अक्षरों की संस्थापना करके मन को एकाग्र किया जा सकता है। . जाप करते समय शरीर को पूर्ण स्थिर रखना चाहिए। मेरुदण्ड सीधा रहे। सुखासन, पद्मासन, पर्यकासन किसी भी आसन का उपयोग किया जा सकता है, पर यह ध्यान रहे कि उस आसन से बैठा जाय जिससे कष्ट न हो और दीर्घकाल तक सुखपूर्वक उस आसन से बैठा जा सके । जाप करते समय साधक का ध्यान नमस्कार महामन्त्र के अक्षरों पर होना चाहिए। यदि मन में किसी प्रकार का संक्लेश है तो प्रारम्भ में सुमधुर राग से भाष्यजप करना चाहिए। उसके बाद उपांशुजप करना चाहिए और उसके बाद मानसजप। जाप में एकाग्रता साधने के लिए यह पद्धति अत्यधिक श्रेष्ठ है। मानसजप, के कुछ समय पश्चात् नेत्रों को बन्द कर मन को हृदयकमल पर स्थापित करना चाहिए। उस समय यह कल्पना की जा सकती है कि हृदय एक विकसित कमल के समान है। उस कमल की आठ पंखुडियाँ हैं। उस कमल के मध्य में एक कणिका है। उस कणिका में देदीप्यमान ज्योतिस्वरूप अरिहन्त भगवान विराजमान हैं।' उस कणिका में "नमो अरिहंताणं" इस प्रकार हीरे की तरह चमचमाहट करते हुए श्वेतवर्ण के सात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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