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________________ Jain Education International ● १६८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड जप- साधना मुनिप्रवर कुन्दकुन्यविजयजी कोई भी विज्ञ मानव जब किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब उसे उस कार्य के सम्बन्ध में जानने की जिज्ञासा होती है । जिज्ञासा ही ज्ञान प्राप्ति का मुख्य द्वार है । जिज्ञासा में हार्दिक नम्रता अपेक्षित है। हार्दिक नम्रता से सुपात्र आत्मा अगम्य अलौकिक तत्त्वों को सम्यक् प्रकार से समझने में समर्थ बनता है । दैवी संपत्ति की सभी बातें केवल बुद्धि से समझी नहीं जा सकती। उसके लिए उच्च तत्त्वों के प्रति समर्पित होने की आवश्यकता है । यह परम सौभाग्य की बात है कि वर्तमान युग में नमस्कार महामन्त्र के जाप के सम्बन्ध में कितने ही सुपात्र व्यक्तियों की विशेष जानने की भव्य भावना जाग्रत हो रही है। उसी दृष्टि से हम यहाँ कुछ चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं। सर्वप्रथम हमें यह चिन्तन करना है कि नमस्कार महामन्त्र का जाप किसलिए किया जाना चाहिए । अनेकानेक अनुभवी तत्त्वदर्शियों ने इसकी महिमा- गरिमा का गौरव गान किसलिए किया है ? समाधान है कि हमें जो मानवजन्म मिला है उसका अत्यधिक महत्व है । यह जीवन खाने-पीने, ऐश-आराम के लिए नहीं है और न ही धन को एकत्रित करने के लिए है । आहार, निद्रा, भय और मैथुन की वृत्तियाँ तो पशुओं में भी पायी जाती हैं। मानव जीवन का लक्ष्य है आत्मा से परमात्मा बनना, नर से नारायण बनना और इन्सान से भगवान बनना । अन्य किसी भी जीवयोनि में वह सामर्थ्य नहीं है जो भगवान बन सके। भगवान बनने का सामर्थ्य केवल मानव को ही प्राप्त है । इसी दृष्टि से मूर्धन्य मनीषियों ने जीवों की भूमिका और योग्यता की दृष्टि से आत्मविकास के अनेक उपाय बताये हैं । आत्मविकास के सभी कारणों के मूल में नमस्कार महामन्त्र रहा हुआ है। नमस्कार महामन्त्र के सहारे ही जीवन का सही विकास हो सकता है और नमस्कार महामन्त्र की आराधना व साधना में आगे बढ़ते हुए क्रमशः गुणस्थानों को प्राप्त कर अन्त में जीव परमात्म-पद प्राप्त करने में समर्थ होता है । अनुभवी सद्गुरु के द्वारा विधिपूर्वक प्राप्त नमस्कार महामन्त्र का पुनः पुनः स्मरण करना जाप' है। इस जाप की संख्या में जैसे-जैसे विकास होता है वैसे-वैसे उसके साक्षात् प्रभाव का अनुभव होता है । सत्य तथ्य है कि धर्मं का वास्तविक प्रारम्भ नमस्कार से होता है ।" जब हम अपने से श्रेष्ठ सद्गुणियों को वन्दन करने की वृत्ति वाले बनते हैं तब हमारी आत्मा पर लगी हुई पाप की कालिमा कम होने लगती है, जिससे हम में धर्म को ग्रहण करने की पात्रता आती है। धर्म अमृत है। जब तक हमारा अन्तःकरण राग-द्वेष, ईर्ष्या असूया, अहंकार आदि दोषों से परिपूर्ण रहेगा तब तक वह अमृत उसमें प्रविष्ट भी नहीं हो सकता । घड़े में शक्कर डालनी है तो सर्वप्रथम उसे खाली करना होगा, उसमें जो कूड़ा-कचरा है उसे निकालना होगा। तभी उसमें शक्कर डाली जा सकेगी। इसी प्रकार अन्तःकरण में से विकार रूपी कूड़े-कचरे को निकालेंगे तभी नमस्कार मंत्ररूप शक्कर उसमें भर सकेंगे । अनन्तगुणों के पुञ्ज अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु भगवन्तों को शुद्ध भाव से हम प्रणाम करते हैं तब हमारे हृदय में धर्म प्रविष्ट होता है। अतः सर्वप्रथम नमस्कार करने का विधान है । अचिन्त्य और अनन्त शक्ति से परिपूर्ण परमेष्ठी के प्रति विनम्र बनकर जीव भक्तियुक्त परिणाम वाला बनता है, जीव की भक्ति और परमात्म-तत्त्व की अचिन्त्य शक्ति इन दोनों का सुमेल हो जाने से आत्मा में अपूर्व जागृति आती है । विकास क्रम की इतनी अत्यधिक भूमिकाएँ हैं कि हम उन्हें संख्या की परिधि में नहीं बाँध सकते । आत्मा चाहे किसी भी भूमिका में हो लेकिन जब वह नमस्कार महामन्त्र से वासित अन्तःकरण वाला होता है, तब वह अपनी वर्तमान भूमिका से क्रमशः उच्चतर पद को प्राप्त करता जाता है अर्थात् चतुर्थं गुणस्थान से विकास करता हुआ आत्मा चतुर्दश गुणस्थान तक पहुँच जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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