SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1064
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना में आहार का स्थान १६१ . युक्त आहार को प्रधानता दी है। भोजन सात्त्विक और उचित मात्रा में हो । सात्त्विक आहार भी आवश्यकता से अधिक मात्रा में लेने से शरीर अस्वस्थ हो सकता है । भोजन की मात्रा के विषय में सबके लिए निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता। उम्र, कार्य का स्वरूप, शरीर की स्थिति देखकर मात्रा निश्चित की जा सकती है। आहार की मात्रा और आहार का स्वरूप क्या हो? हम कितना और क्या खायें जिससे शरीर स्वस्थ रहकर उसमें स्फूर्ति रहे, कार्यक्षमता रहे, इसकी जानकारी जरूरी है। हमारे शरीर के बाह्य रूप को देखकर कहा जा सकता है कि हमारा आहार उचित है या नहीं। यदि हममें जरूरत से अधिक मोटापा होता है तो समझ लेना चाहिए कि हमारे आहार की मात्रा अधिक है। सात्त्विक किन्तु अधिक आहार लेने से भी शरीर में स्निग्धता की मात्रा बढ़ती है जिससे मोटापा आता है। जरूरत से ज्यादा स्नेह बढ़ने से शरीर में वह संग्रहीत होता है । इसलिए साधक को आहार विषयक जानकारी होना आवश्यक है। आजकल हर विषय पर अनुसंधान हो रहे हैं और वह ज्ञान साहित्य के द्वारा उपलब्ध है। आहार के विषय में विशेषज्ञों के अनुसंधानों द्वारा जो तथ्य उजागर हुए वे बड़े उपयोगी हैं। यह अनुसंधान कार्य पूरा नहीं हुआ है पर जो तथ्य सम्मुख आये उसका उपयोग कर साधक अपना आहार निश्चित कर सकता है। उचित आहार लेने से मनुष्य नीरोग रह सकता है। बिना औषधि के प्रयोग के नीरोग रहने वाले लोग अल्पसंख्यक क्यों न हों, पर हैं। मेरे मित्र धरमचन्दजी सरावगी ने ३५ साल से किसी औषधि का प्रयोग नहीं किया और ७० साल की आयु में भी एक युवक को तरह कार्यक्षम हैं । उसका मूल कारण आहार है। जो हम खाते हैं वैसा हमारा शरीर होता है। खाद्य वस्तुओं से हमारा शरीर निर्माण हुआ है। उन्हीं तत्त्वों के संग्रह से हमारा शरीर गठित होता है, वही तत्त्व शरीर को कार्यक्षम बनाये रखते हैं और शरीर-क्षय को रोकते हैं। उचित आहार से बढ़कर नीरोग रहने के लिए कोई अच्छा उपाय नहीं है। सभी आहारशास्त्री इस पर एकमत हैं कि रोगों का प्रमुख कारण अयुक्त आहार ही है। युक्त आहार न लेने से अम्लत्व और श्लेष्म पैदा होता है जो बीमारियों की जड़ है। हमारा स्वस्थ जीवन आहार पर निर्भर है अथवा यों कहिए कि आहार पर ही जीवन निर्भर है। हम आहार जीवित रहने के लिए लेते हैं पर आहार के लिए हमारा जीवन नहीं है। जीवन तो हमारी सुप्त शक्तियाँ जगाकर पूर्णत्व प्राप्ति के लिए, आत्मा से परमात्मा और नर से नारायण बनने के लिए है । इसलिए भोजन संयम का साधन बने । भोजन स्वाद के लिए नहीं पर शरीर को स्वस्थ रखने के लिए किया जाय । आज भोजन में स्वाद का स्थान प्रमुख है, वहाँ स्वास्थ्य को स्थान दिया जाय। आज के भोजन में स्वाद को अत्यधिक महत्व दिया जा रहा है। आहार को स्वादिष्ट बनाने के लिए उपयोगी तत्त्वों का नाशकर उसे बीमारियों का कारण बनाते हैं। इसलिए संयम आवश्यक है। चीजें स्वादिष्ट बनने पर उसके महत्वपूर्ण तत्त्व तो नष्ट होते ही हैं पर अधिक मात्रा में खाकर हम बीमारियों को न्यौता देते हैं। गांधीजी ने कहा है कि लाख में नियानवे हजार नौ सौ नियानवे लोग केवल स्वाद के लिए खाते हैं। वे इस बात की परवाह ही नहीं करते कि खाने के बाद वे बीमार पड़ जायेंगे या अच्छे रहेंगे। बहुत से लोग अधिक खा सकने के लिए जुलाब लेते हैं या पाचक चूर्ण खाते हैं। . इससे पता चल जाता है कि बहुसंख्यक लोग गलत और सही आहार के अन्तर को समझने में असमर्थ होते हैं; क्योंकि शताब्दियों से अशुद्ध और अस्वास्थ्यकर आहार करते आये हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि स्वास्थ्यप्रद आहार कौन सा है। आहार-शुद्धि पर जैन शास्त्रों में काफी गहराई से विचार किया गया है और साधक के लिए अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिसंक्षेप और रस-परित्याग बताये हैं। ये सब बातें शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से आज का विज्ञान भी बड़ी उपयुक्त मानने लगा है। सुप्रसिद्ध आहारशास्त्री एरहार्ड ने अपने अनुभव से रोगमुक्ति का उपाय उपवास माना है और उसने कई बार एक-एक महिने से ४५ दिनों तक उपवास किये हैं। जैनियों में उपवास की परंपरा तो बहुत बड़े पैमाने में धार्मिक रूप से चल रही है। पर उपवास के बाद पारणा कैसे किया जाय, इसका वैज्ञानिक ज्ञान बहुत कम पाया जाता है जिससे उपवास के शरीर-स्वास्थ्य के लाभ से वंचित रह जाते हैं। इतना ही नहीं, कई बार तो उपवास और तपस्या करने वाले बीमार हो जाते हैं और कभी-कभी प्राणों को भी खो बैठते हैं। जैन-समाज के संत-साध्वियों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy