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________________ Paes Jain Education International • १६० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड साधना में आहार का स्थान ऋषभदास रांका आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है। आत्मा की सुप्त शक्तियों का विकास कर नर से नारायण बना जा सकता है । साधना द्वारा चैतन्यशक्ति पर आये हुए आवरण हटाने का अनावृत करने का प्रयत्न करने से परमात्मपद की प्राप्ति हो सकती है । की आत्मा पर कर्मबंध के कारण चैतन्यशक्ति पर जो आवरण छाया हुआ है उसे दूर करने के लिए अन्तर् गहराइयों में जाकर उन शक्तियों से परिचित होना, ढूंढ़ना और उन शक्तियों का नियमित उपयोग लेना । उसके लिए अन्तर्मुख होना आवश्यक है। स्थूलशरीर को सब कुछ मानकर बाह्य प्रवृत्तियों में लगना बहिर्मुखता है । किन्तु इस शरीर में व्याप्त जो चैतन्य शक्ति है उस ओर ध्यान देना अन्तर्मुखता है । शरीर को सब कुछ न मानकर उसके द्वारा चैतन्यशक्तियों का विकास साधना द्वारा किया जाता है । संसार की शक्तियों की अभिव्यक्ति और प्रकटीकरण इस शरीर द्वारा ही होता है। इसलिए चैतन्यशक्ति का प्रकटीकरण शरीर के सहयोग से ही होता है । इसलिए शरीर की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आत्मविकास में शरीर को समझना भी उतना ही आवश्यक है, जितना आत्मा को समझना । शरीर को भलीभाँति समझे बिना, उसका हम उचित उपयोग नहीं कर सकते । शरीर को सब कुछ मानकर इन्द्रियों द्वारा विषय सुख प्राप्ति में लगना जैसे साधना में बाधक है वैसे ही शरीर की पूर्णरूप से उपेक्षा भी आत्मविकास में बाधक है। इसलिए उसका उचित स्थान समझना और उसका चैतन्यशक्ति को अनावृत करने में उपयोग कर लेना आवश्यक है । जब हम शरीर को सब कुछ मानकर उसमें मूच्छित होते हैं वह बहिर्मुखता है तथा मैं केवल शरीर ही नहीं हूँ, मेरे शरीर के भीतर जो चैतन्यशक्ति है, उसकी अनुभूति करना अन्तर्मुखता है। बाह्य शरीर को ही सब कुछ मानकर सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों को वास्तविक मानकर चलना बहिर्मुखता है। शरीर को ही सब कुछ मान लेने पर राग-द्वेष, अहंता-ममता, ईर्ष्या-पूणा, संकल्प-विकल्प की परिणतियाँ होती हैं, हम उन्हें अपना मानकर चलते हैं तो शरीर हमारी साधना में बाधक होता है। लेकिन इस मूर्च्छा से जागकर हमें वीतरागता तक पहुंचना है और यह कार्य शरीर के सहयोग से ही होता है सिर्फ हम उसे वह जैसा है सममें, जरूरत से ज्यादा उसे महत्व न देकर उसका उपयोग अपने पूर्ण विकास के लिए कर लेते हैं तो शरीर को सार्थक बना सकते हैं । कई साधकों ने शरीर को नरक का द्वार और बुरा माना है, उसकी उपेक्षा करने को कहा है तो कुछ ने उसे प्रभु का मन्दिर मानकर, उसका निवासस्थान समझकर वन्दनीय माना है । शरीर को निन्दनीय माने वैसा तो नहीं है क्योंकि वही तो हमारी सारी शक्तियों का, चैतन्य - रश्मियों का वाहक है । आत्मा से परमात्मा बनने का साधन तो यह मानव शरीर ही है। संसार में जितने भी महापुरुष सिद्ध, बुद्ध, तीर्थंकर, जिन, अवतार, पैगम्बर हुए सभी मानव शरीर में ही हुए हैं। सिर्फ सवाल यह है कि हम उसका कैसे उपयोग करें । भगवान महावीर के साधना मार्ग में भी शरीर का महत्व बताया गया है, उसकी उपेक्षा नहीं । उत्तम संहनन के बिना ध्यान नहीं होता यह कहा गया है, इसलिए साधक को शरीर स्वस्थ और कार्यक्षम रखना चाहिए। यदि शरीर को स्वस्थ रखना है तो आहार को सन्तुलित रखना आवश्यक है। गीता ने भी योगी की चर्या में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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