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________________ १३८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड . अब हम ऊपर कहे गये कर्ण-अगोचर शब्द के सम्बन्ध में कुछ विशेषरूप से चिन्तन करते हैं । कर्ण-अगोचर शब्द उत्पन्न करने के हेतु एक यन्त्र का प्रयोग किया जाता है जिसे 'Piezo-electric Oscillator' कहते हैं। इस यन्त्र का मुख्य भाग विल्लोर (Quartz) का एक प्लेट होता है। बिल्लोर का प्लेट जब बिजली की ए. सी. धारा से जोड़ दिया जाता है, तो उसकी सतह कम्पन करने लगती है। इस प्लेट का कम्पन प्रति सेकण्ड कई लाख से कम नहीं होता । सतह के कम्पन के कारण चारों ओर की वायु में शब्द की सूक्ष्म लहरें उत्पन्न हो जाती हैं। यही लहरें कर्ण-अगोचर शब्द की लहरें हैं। जब हम सम्भाषण करते हैं, तो वायु में लगभग १० फीट लम्बी तरंगें उत्पन्न होती हैं। ये तरंगें जब कान के परदे तक पहुंचती हैं तो परदा हिलने लगता है और उसके कम्पन से हमारे मस्तिष्क में शब्द का बोध होता है। किन्तु जब कर्ण-अगोचर शब्द की उत्पत्ति होती है तो वायु में ध्वनि की तरंगें केवल १ इंच अथवा ३ इंच लम्बाई की होती हैं। इन सूक्ष्म तरंगों की यह विशेषता होती है कि यह एक ही दिशा में बहुत दूर तक बिना हस्तक्षेप के चली जाती हैं। न केवल ध्वनि की तरंगें अपितु विद्युत् तरंगों की भी यही स्थिति है। इसी कारण लन्दन अथवा बलिन से रेडियो द्वारा आने वाले समाचार अधिकांश छोटी लहरों द्वारा भेजे जाते हैं। जिस प्रकार प्रचण्ड आँधी केवल बड़े-बड़े वृक्षों का संहार करती है, छोटी-छोटी घास पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, ठीक उसी प्रकार विद्युत् की छोटी-छोटी लहरें लन्दन से आँधी, वर्षा, गर्मी, सर्दी, सबके प्रभाव से अप्रभावित रहकर यहाँ तक सकुशल चली जाती हैं। इसी गुण के कारण कर्ण-अगोचर नाद की लहरों का अनेक दिशा में उपयोग हुआ है। (१) सन् १९१२ में जब टिटैनिक नाम का बड़ा जहाज एक जलमग्न बर्फ की पहाड़ी से टकराकर नष्ट हो गया था, तभी प्रो. रिचार्डसन ने भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने की एक योजना बनायी थी, जिसमें कर्णअगोचर नाद का उपयोग बतलाया था। जिस Oscillator यन्त्र का ऊपर उल्लेख किया गया है उसके द्वारा कर्ण-अगोचर नाद की तरंगों को समुद्र की तली की ओर भेजा जाता है। इस तरंगावलि के मार्ग में जब कोई बर्फ की चट्टान (Iceberg) आ जाती है तो तरंगें उससे टकराकर वापस लौट आती हैं। तरंगों को जाने और लौट आने में जो समय लगता है, वह एक घड़ी द्वारा नाप लिया जाता है और चूंकि समुद्र-जल में तरंगों की गति ज्ञात है, गणित करने से चट्टान की दूरी का अनुमान हो जाता है, और इस प्रकार जहाज को अज्ञात खतरे से बचाने का प्रयास किया जाता है। (२) समुद्रों की गहराई भी आजकल इसी यन्त्र के द्वारा नापी गयी है। (३) इन स्वर-लहरों के मार्ग में यदि मनुष्य अपना हाथ कर दे तो उसके हाथ में से रक्त की बूंदें टपकने लगेंगी और उसे ऐसी वेदना होगी मानो कि उसके हाथ में सहस्रों सुइयाँ चुभ रही हैं। वैज्ञानिकों ने मछली, मेंढक आदि अनेक अन्य प्राणियों पर प्रयोग करके देखा है कि इन तरंगों के प्रभाव से इनकी मृत्यु तक हो सकती है। कृषि विभाग में इन तरंगों का विशेष उपयोग जर्मनी आदि देशों में हो रहा है। एक यन्त्र किसी अनाज के खेत के मध्य में स्थापित कर दिया जाता है। उसमें से निकली हुई तरंगें उन सब कीड़ों को नष्ट कर देती हैं जो खेत को हानिकर होते हैं। (यह बात विशेषरूप से नोट करने योग्य है कि वैज्ञानिकों ने शब्द या ध्वनि की सहायता से जीवों का प्राणहनन सम्भव करके दिखा दिया है। यही कार्य पुरातन समय में मारण मन्त्रों की सहायता से भी किया जाता था, ऐसी मान्यता है।) (४) कर्ण-अगोचर नाद का उपयोग धातु में झाल लगाने के कार्य में भी हुआ है। Ultrasonic Soldering Set के द्वारा एल्युमीनियम के बरतनों में भी झाल लगायी जा सकती है। अर्थात् शब्द की शक्ति के द्वारा इतना ताप उत्पन्न किया जा सकता है कि धातु के दो टुकड़े पिघलकर आपस में जुड़ जाते हैं । (५) इन लहरों की सहायता से पारा पानी में घुल जाता है । (६) इन लहरों द्वारा दही के प्रोटीन कणों को चूर्ण करके हल्का-फुल्का और शीघ्र पचने वाला बनाया जाता है और ऐसे दही को आज अमेरिकी अस्पतालों में कमजोर रोगियों को दिया जा रहा है। कर्ण-अगोचर नाद की विशेषताओं का उल्लेख करने के पश्चात् अब हम मन्त्र-शास्त्र की ओर आते हैं। 'ज्ञानार्णव' नाम का ग्रन्थ मन्त्र-शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें अनेक मन्त्रों का भण्डार पाया जाता है और प्रत्येक मन्त्र के वाच्य देवी-देवताओं का अथवा शुद्धात्मतत्त्व या परमात्म-तत्त्व का विधिपूर्वक चिन्तन करने की विधि, जाप संख्या इत्यादि का वर्णन पाया जाता है । मन्त्रों का वर्गीकरण मन्त्रों की अक्षर संख्या के आधार पर किया गया है जैसे ॐ ह्र, ह्रीं, इवीं, श्रीं, ऐं, हां, ह्र, ह्रौं, ह्रः, क्लीं, क्लं, क्रौं, श्रा, श्री, श्रृं, क्षा, क्षी, झू, क्ष: इत्यादि अनेक एकाक्षरी मन्त्र हैं। इसी प्रकार अर्ह, सिद्ध, साधु इत्यादि युग्माक्षरी मन्त्र हैं। इसी प्रकार एक-एक अक्षर बढ़ाकर अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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