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________________ मन्त्र-शक्ति : एक चिन्तन १३७ . C- - मन्त्र-शक्ति : एक चिन्तन 0 प्रो. जी. आर. जैन (मेरठ) मूल विषय का प्रतिपादन करने से पूर्व यह आवश्यक प्रतीत होता है कि ध्वनि-विज्ञान की कुछ प्रारम्भिक बातों का उल्लेख कर दिया जाय । शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राचीन वैशेषिकदर्शनकार का मत तो यह था कि शब्द आकाश का गुण है, किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगों से यह बात असत्य सिद्ध होती है। ध्वनि निर्वात (Vacuum) स्थान में होकर नहीं जाती। यदि ध्वनि आकाश का गुण होता तो शब्द की गति निर्वात स्थान में भी होनी चाहिए थी क्योंकि आकाश तो वहां भी विद्यमान रहता ही है। जैन शास्त्रों में जो पुद्गल के छह भेद किये गये हैं उनमें शब्द (Sound) को पुद्गल का सूक्ष्म-स्थूल रूप कहा गया है क्योंकि पुद्गल के इस रूप को आँखों से नहीं देखा जा सकता, केवल कर्ण इन्द्रिय द्वारा सुना जा सकता है। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि शब्द की उत्पत्ति द्रव्य के परमाणुओं के कम्पन द्वारा होती है। यही बात तत्त्वार्थसूत्र, पंचम अध्याय, सूत्र २४ और उत्तराध्ययन, अध्याय २८, गाथा १२-१३ में कही गयी है। शब्द के शास्त्रकारों ने प्रथम दो भेद किये हैं-(१) भाषात्मक, और (२) अभाषात्मक । भाषात्मक के दो भेद कहे गये हैं(१) अक्षरात्मक, (२) अनक्षरात्मक । इसी प्रकार अभाषात्मक के भी दो भेद किये गये हैं—(१) प्रायोगिक (वाद्य यन्त्रों द्वारा उत्पन्न की गयी ध्वनियाँ), और (२) वैनसिक (बिजली की कड़क, समुद्र का गर्जन इत्यादि नैसर्गिक ध्वनियाँ)। प्रायोगिक के चार भेद कहे गये हैं-(१) तत (ढोल या तबले की ध्वनि), (२) वितत (सारंगी, सितार इत्यादि की ध्वनियाँ), (३) घन (हारमोनियम, पियानो, लोहतरंग इत्यादि की ध्वनियाँ), (४) सुषिर (बांसुरी या शंख आदि की ध्वनि)। इस विवेचन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि जैन आचार्यों को ध्वनि के सम्बन्ध में बड़ा ही सुन्दर, सही-सही और पूर्ण ज्ञान था। भौतिक विज्ञान की किसी भी पुस्तक को उठाकर यदि आप देखेंगे, तो ध्वनि उत्पन्न करने की यही क्रियाएँ लिखी हुई मिलेंगी-(१) तारों की झनझनाहट से, (२) प्लेट या रीड (Reed) की झनझनाहट से, (३) तने हुए परदे (Stretched Membrane) की झनझनाहट से, और (४) वायु-स्तम्भ के कम्पन से। शब्द या ध्वनि के सम्बन्ध में एक बात विशेषरूप से समझने योग्य है । यदि वस्तु के कणों की स्पन्दन गति १६ स्पन्दन प्रति सेकण्ड की गति से कम है तो कोई शब्द उत्पन्न नहीं होता। स्पन्दन की गति जब १६ या २० प्रति सेकण्ड से बढ़ जाती है तो शब्द सुनायी देने लगता है। जैसे-जैसे स्पन्दन की गति बढ़ती जाती है, स्वर भी ऊँचा होता जाता है, किन्तु स्पन्दन गति २०,००० (बीस हजार) प्रति सेकण्ड हो जाने पर और कभी विशेष अवस्थाओं में ४०,००० (चालीस हजार) तक शब्द कर्णगोचर होता है अर्थात् सुनायी देता है। स्पन्दन की गति ४०,००० प्रति सेकण्ड से अधिक होने पर जो शब्द उत्पन्न होता है, उसे हमारे कान नहीं सुन पाते। इस शब्द को कर्णागोचर नाद (Ultrasonic) कहा जाता है। हाथ का पंखा जब शनैः-शनैः हिलाया जाता है, तो कोई ध्वनि उत्पन्न नहीं होती। यदि उसी पंखे को एक सेकण्ड में १६ या २० बार हिलाया जाय तो एक क्षीण स्वर सुनायी देता है। इसके उपरान्त ज्यों-ज्यों पंखे के हिलने की गति तीव्र होती जाती है, स्वर भी ऊँचा होता जाता है। हारमोनियम के अन्दर जो छोटी बड़ी पीतल की पट्टियाँ (Reeds) लगी रहती हैं, वे भी इसी प्रकार प्रति सेकण्ड भिन्न-भिन्न संख्या में कम्पन करती हैं और इस प्रकार भिन्नभिन्न स्वरों की सृष्टि होती है। सम्भाषण के समय हमारे कण्ठ में स्थित स्नायु लगभग १३० बार प्रति सेकण्ड की गति से झनझनाते हैं। झनझनाहट की यह क्रिया बालकों तथा नारियों के कण्ठ में अधिक तीव्र होती है, इस कारण उनका स्वर पुरुष-स्वर से ऊंचा होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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