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________________ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन ६६ . ०० GADACOCONDOLELooo TOB सुनहरे संस्मरण ..:.:..... 0 डा० एस० एस० बारलिंगे (अध्यक्ष --- दर्शन विभाग, पूना विश्वविद्यालय) भारत के मूर्धन्य मनीषियों ने जीवन के सम्बन्ध में श्रमणों से मिलना और उनसे विचार-चर्चा करना संभव गम्भीर चिन्तन किया। उनका यह अभिमत रहा है कि न हो सका । पूना विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के जीवन भोग-विलास की गन्दी नालियों में कुलबुलाने के अध्यक्ष के रूप में मेरा कार्य प्रारम्भ था। दिनांक १-६लिए नहीं है, न कूकर और शूकर की तरह ईर्ष्या-द्वेष की १९७५ को मुझे एक आमन्त्रण-पत्र मिला जिसमें लिखा गन्दगी चाटने के लिए ही है। जीवन का अर्थ है विकारों था कि देवेन्द्र मुनि जी लिखित "जैनदर्शन स्वरूप और से जूझना, वासनाओं पर विजय प्राप्त करना, नम्रता, विश्लेषण" ग्रन्थ का विमोचन समारोह हम करना चाहते सरलता, स्नेह, सौजन्य और उदारता, आदि सद्गुणों का हैं और उस समारोह के अध्यक्ष पद के लिए मुझे प्रेम भरा विकास करना है। अत: भारत के चिन्तकों ने उन्हीं आग्रह किया गया था। ग्रन्थ के कुछ पृष्ठ मैंने उठाकर व्यक्तियों के जीवन को आदर प्रदान किया है जिनका पढ़े । मुझे ग्रन्थ की लेखन शैली आकर्षक लगी और ऐसा जीवन सूर्य की तरह प्रकाशित है, चन्द्र की तरह सौम्य है, अनुभव हुआ कि जैनदर्शन सम्बन्धी सभी पहलुओं पर शेर की तरह निर्भीक है, गजराज की तरह मस्त है, फूलों साधिकार लिखा गया है। ऐसे विद्वान् मुनिजी के और की तरह सुगन्धित है। फलों की तरह रसदार है और उनके निर्माता गुरुवर्य से मिलने का सुनहरा अवसर मैं सरिता की तरह प्रगतिशील है, सागर की तरह गम्भीर अपने हाथ से जाने देना नहीं चाहता था। अतः मैंने सहर्ष है और हिमालय की तरह उन्नत है । वही जीवन वन्दनीय, स्वीकृति प्रदान की। वर्णनीय और अर्चनीय है। कवियों की कमनीय कल्पनाएँ दिनांक ७-६-१९७५ रविवार का दिन था। सादड़ी उन्हीं के गौरवपूर्ण जीवन की गाथाओं का उत्कीर्तन सदन, जहाँ पर मुनिश्री जी अवस्थित थे, मैं अपने स्नेही करती रही हैं । लेखकों की लोह लेखनियाँ उन्हीं के तेजस्वी साथी डा० आनन्दप्रकाश दीक्षित, एम. ए., पी-एच० डी० व्यक्तित्व और कृतित्व का उट्ट कन करती रही हैं, उन्हीं के अध्यक्ष, हिन्दी विभाग पूना विश्वविद्यालय, डा० ए० डी० चरण-चिन्हों पर इतिहास के नव्य-भव्य भवन का निर्माण बतरा एम० ए०, पी-एच० डी० के साथ पहुंचा। सादड़ी हुआ है । कलाकार की श्रेष्ठ तूलिकाएँ और छेनियां उन्हीं सदन में हजारों की संख्या में भावुक भक्त लोग बैठे हुए थे। के जीवनों की विविध छवियाँ चित्रित एवं निर्मित करती एक उच्च काष्ठासन पर एक तेजस्वी सन्त बैठे हुए थे और रही हैं। जब कभी भी ऐसे विशिष्ट सन्तों से मिलने का उन्हीं के सन्निकट देवेन्द्र मुनि जी और अन्य मुनिगण बैठे अवसर सम्प्राप्त होता है, तो जीवन में अभिनव आलोक थे। एक ओर, मंच पर साध्वियाँ आसीन थीं। डाक्टर ए. का अनुभव होता है। डी० बतरा ने मुनिजी को मेरा परिचय दिया । ग्रन्थ का मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ जो परिवार विमोचन सन्माननीय नेता श्री व्ही. एस. पागे, अध्यक्ष, धार्मिक संस्कारों से संस्कृत था और विश्वविद्यालय के महाराष्ट्र राज्य विधान सभा के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न वातावरण में मेरा अध्ययन, चिन्तन चलता रहा । प्रारम्भ होने वाला था। समारोह उल्लास के क्षणों में प्रारम्भ से ही मेरे अन्तर्मानस में जिज्ञासा थी जिसके कारण मैंने हुआ । डा. दीक्षित के पश्चात मेरा भाषण था। विविध दर्शनों का और तर्कशास्त्र का अध्ययन किया। किन्तु अकस्मात् बिजली चली गयी जिस कारण जैनदर्शन के अनेकान्तवाद तथा सप्तभंगी के सिद्धान्त ने ध्वनि विस्तारक यन्त्र बन्द हो गया। मैं ज्यों ही भाषण मुझे प्रभावित किया। किन्तु समयाभाव के कारण जैन- देने के लिए प्रस्तुत हुआ मेरे सामने एक विकट समस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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