SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1021
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Goob . ११८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड अब इस ग्रन्थ की कुछ विशेषताओं के बारे में विचार करना है। सबसे पहले यह बात ध्यान में आती है कि इस ग्रन्थ में षष्ठांग योग बताया है (योगं च षड्विधं प्रोक्तम् ॥१३)। हमें ज्ञात है कि पतञ्जलि से अष्टांग योग की प्रसिद्धि है। अनन्तर बहुत से योग ग्रन्थों में योग के आठ अंग कहे हैं, मगर इस बात को नहीं भूलना चाहिए षडङ्ग योग मानने वालों का भी एक संप्रदाय था। इनमें प्रायः यम और नियम इन दोनों प्राथमिक अंगों को गिना नहीं जाता था। गोरक्षनाथ की सिद्धसिद्धान्तपद्धति में अष्टांग योग में यम और नियमों का उल्लेख जरूर है, मगर ये यम और नियम भगवद्गीता या पातञ्जल सूत्र के यम-नियमों से कुछ अन्तर रखते हैं। त्रिशिखिब्राह्ममणोपनिषदादि कुछ योगउपनिषदों में योग के छ: अंग बताये है। सम्भवता छ: अंग मानने वालों का सम्प्रदाय प्राचीन है। प्रस्तुत ग्रन्थ में यम और नियमों का नाम से उल्लेख जरूर है। मगर उनकी योग के अंगों में गिनती नहीं की गयी है और उनका स्पष्टीकरण भी नहीं किया गया है। यह ग्रन्थ योग के अन्य ग्रन्थों से भिन्न है। इसमें आसन, प्राणायाम, ध्यान इत्यादि अंगों का प्रात्यक्षिक विवरण या तात्त्विक विश्लेषण नहीं है। यहाँ है केवल प्रशस्ति । केवल योगमार्ग की प्रशस्ति । उसमें भी केवल प्राणायाम की प्रशस्ति है। ध्यानादि अंगों का केवल नाममात्र उल्लेख है। तो इतने पूरे लगभग सात सौ श्लोकों में क्या लिखा है ? ऊपर दिये हुए सारांश से विषय का पता जरूर चलता है। मगर इन विषयों का सन्दर्भ क्या है ? क्रम क्या है ? क्यों इन विषयों का विवेचन यहाँ किया है ? ठीक ध्यान देने पर इस बात का पता चलता है कि इस ग्रन्थ में उन विषयों पर विशेषत: उन पारिभाषिक संज्ञाओं पर विचार किया है जो कि विभिन्न तात्त्विक व धार्मिक सम्प्रदायों में विशेष स्थान रखते हैं। और इनका विचार भी उस ढंग से किया है जिससे इन संज्ञाओं के योग वैज्ञानिक रूप में अर्थ स्पष्ट हो जाय । वह्निमार्ग और धूममार्ग, षट्कर्म, दीक्षा, सगुण पूजा इत्यादि संज्ञाओं का स्पष्टीकरण देखने योग्य है। हर एक पटल के प्रारम्भ में देवी ने ईश्वर से ऐसी कुछ संज्ञाओं के बारे में प्रश्न पूछा है और बाद में उत्तररूप में ईश्वर ने उन संज्ञाओं के अर्थ दिये हैं। हर एक पटल में क्रमश: देवी द्वारा पूछे गये प्रश्न ये है--(१) कर्म और योग में मोक्ष का साधन कौन-सा है ? सब शास्त्रों में कौन-से एक तत्त्व का विचार है ? योग के छ: अंग, जीव, गणात्मिका शक्ति, निर्गण परमात्मा, वली-पलित, जरा स्तंभन इत्यादि क्या हैं ? (२) कर्म-अकर्म-विकर्म, चार मनोवस्था, धर्माधर्म, बन्धन-मोक्ष, जीवित-मरण, भावाभाव, चार योग, सहज ध्यान इत्यादि क्या हैं ? (३) नेति नेति का अर्थ, दृष्ट-नष्ट-अदृष्ट, मद्य-मैथुन-मांस, सत्यासत्य, बिन्दुपान इत्यादि । (४) अग्निधूमात्मक मार्ग, चन्द्र-सूर्य का संचार, विषुव, प्रणवरूप हंस इत्यादि। (५) गुण और माया (यह पटल 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' इस श्लोकपंक्ति की टीका पर है) (६) ब्रह्मस्वरूप (यह पटल 'ब्रह्ममार्पणं ब्रह्महविः'' इस श्लोक की टीका पर है)। (७) षट्चक्रभेदन (८) दीक्षा (8) चार आश्रम, कर्मयोग, संन्यास, हंस, परमहंस, त्रिदंडी, एकदण्ड, मूर्तामूर्त, पूजा, सगुण-निर्गुण, प्राणलिंग और उसकी धारणा इत्यादि। इससे पता चलता है कि योगमत के सिवाय अन्य विश्वासों का योगमार्ग के अनुकूल अर्थ लेकर योगमार्ग की श्रेष्ठ मार्ग के रूप में प्रतिष्ठापना करना यही इस ग्रन्थ का उद्देश्य है। इससे समझना चाहिए कि इस ग्रन्थ का कर्ता योगमार्ग का दृढ़ अभिमानी था। कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और योगमार्ग का वाङमय देखने से हमें पता चलता है कि उनके कर्ता या तो अन्य मार्गों की निन्दा करते हैं अथवा उनके मतों का समन्वय करके अपने मत के अन्तर्गत उनका स्थान दिखलाते हैं। सभी मार्गों की यह विशेषता है और मागियों की यही रीति है। मानो अपने मार्ग की श्रेष्ठता प्रस्थापित करने के लिए उन्हें यह करना ही पड़ता है। प्रस्तुत ग्रन्थ योगमार्ग का श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करते हुए अन्य मार्गों से समन्वय रखता है। योगमार्ग में प्राणायाम का अनन्यसाधारण महत्व है और वायु को साध्य करने से सब कुछ सिद्ध होता है यही हठयोग की धारणा है। अकुलागम में आदि से अन्त तक केवल यही भाव दृढ़ रखा गया है। वायु ही आत्मा है और वायु ही परमेश्वर है-इसको सिद्ध करने के लिए उन्होंने प्रमाण लिया है ऋग्वेद के 'आत्मा देवानां...' (ऋग्वेद १०।१६८४ और अकुलागम ६।१८) इस मन्त्र का। इस ग्रन्थ में योग के किसी अंग का विशेष रूप से विचार किया गया है तो वह है प्राणायाम का। उसका देवता है विष्णु और स्थान है नाभि । इसी प्राणायाम का प्रणव से समीकरण किया है। देखिए प्रणवः प्रोच्यते सद्भिः प्राणायामस्तृतीयकः ॥११६१॥ प्राणायाम के बिना अमूर्त में भावना नहीं होती। इसलिये हर प्रयत्न से प्राणायाम का ही अभ्यास करना चाहिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy