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________________ अकुलागम का परिचय ११७ . कर्मत्याग करके योगाभ्यास करने वाले को बहुत-से विघ्न होते हैं (-११)। मोहमात्सर्यजित होकर कर्मकाण्ड में रत रहने वाले व्यक्ति ही योगेश्वर हैं (१२) । श्रवण, दान, पूजन, आस्तिक्य, मैत्री, ब्रह्मचर्य, मौन इत्यादि योग के साधन हैं (-१७) । सदाचार से वैराग्य, वैराग्य से गुरुप्राप्ति और उससे योग का ज्ञान होता है। इसके कारण कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए । गीता में कथित यम-नियमों का पालन करके कर्मसाधन करना चाहिये (-२०)। शुद्ध देश में गणेश, दुर्गा, विष्णु, गुरु और शिव का पूजन करके मठ में आसन करें । उस पर सिद्धासन लगाकर भ्रूमध्य में दृष्टि करके गुरूपदिष्ट मार्ग से प्राणायाम करें। इससे नाड़ीशुद्धि हो जाती है (-३२)। अपान आधारचक्र है । प्राण स्वाधिष्ठान चक्र है । समान मणिपूर है । उदान अनाहत है । व्यान विशुद्ध है। उसके बाद आकाशकमलस्थित चक्र है (-३७)। इन चक्रों में वर्णमातृकाओं का स्थान है। प्राणापान रूप ह-क्ष वर्ण व्योमचक्र में है। षट्चक्रों के सम्बन्ध से संसार है और उसके भेद से मुक्ति । प्राण ही चक्रस्वरूप है और वह स्वयं ही अपना भेद करने वाला है। इसलिए प्राण का संयमन करें। प्राण ही निश्चल निराकार केवल शाश्वत ब्रह्म है और उसका ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है (-५७)। यह शास्त्र अनधिकारी व्यक्ति को नहीं देना चाहिए। इस ज्ञान से अन्य कुछ पवित्र नहीं है (-१)। पटल ८-योग की दीक्षा के बारे में प्रश्न (-५)। उत्तर-ज्ञान का दान और कर्म का क्षालन होने से दीक्षा नाम सिद्धि होता है। वह दीक्षा त्रिविध है-शांभवी, वेद्य और आणवी। यही प्रणव के और प्राणायाम के तीनों अंशों में विद्यमान है (-२२) । ब्रह्मदीक्षा, प्रणवदीक्षा, मन्त्रदीक्षा इत्यादि व्यर्थ है। सत्संग से ही कौलिक दीक्षाज्ञान होता है। योग और दीक्षा एक ही है (-३६)। पटल ६–चार आश्रमों के बारे में प्रश्न । अमूर्त, सगुण-निर्गुण, प्राणलिंग की धारणा व पूजा आदि के बारे में प्रश्न (-१५) । मणिपूर, अनाहत, निरंजन और निरालय इन चार क्रमों में रहने वालों को क्रमशः ब्रह्मचारी, गृही, वानप्रस्थी और यती कहते हैं (-२७) । वाग्दण्ड, कर्मदण्ड और मनोदण्ड इन तीन दण्डों को धारण करने वाला त्रिदंडी है। इससे परा है ज्ञानदण्ड । इसलिए उसको धारण करने वाला यती एकदण्डी कहलाता है। ज्ञानमयी शिखा धारण करने वाला शिखी होता है। परमपद को सूत्र कहते हैं। ब्रह्मभाव से विचरण करने वाला ही ब्रह्मचारी है। इन्द्रिय पशु को अव्यक्ताग्नि में हवन करने वाला वानप्रस्थ है। त्रिगुण से रहित हंस होता है। विचार शब्द में 'वि' का अर्थ है हंस और 'चार' का अर्थ है उसका निरंजन में विचरण होने वाला। यही महावाक्यविचार है (-५०)। सूददोहा ही परब्रह्म है । नियत कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। अतः सुददोहा का नित्य अभ्यास करना चाहिए। विभिन्न धर्मों के अभिमानी योग को जानते नहीं (-१८)। वेद के पूर्वभाग में कर्ममार्ग का उपदेश है। उससे द्वैत बढ़ता है। उससे देह गुण वृद्धि होता है। परिणामस्वरूप दुःख की प्राप्ति होती है। इसलिए ज्ञानी कर्म का त्याग करते हैं। सुख के लिए कर्म करते हैं मगर कर्म से सुख की उपलब्धि नहीं होती। कर्म से उत्पत्ति, स्थिति और संहार होता है। ज्ञान से इन तीनों का नाश होता है (-१०४)। योगी उत्तम कुल में जन्म लेता है। योगाभ्यासरत मुनि धन्य है (-११६)। षट्कर्मों को साध्य करने की युक्तियाँ हैं-आधार में यजन, स्वाधिष्ठान में याजन, मणिपूर में अध्ययन, अनाहत में अध्यापन, विशुद्ध में दान और आज्ञा में प्रतिग्रह । इसी तरह का कर्म मोक्षदायी होता है (-१२५) । योग साधना के लिए जाति का बन्धन नहीं है। योग का प्रथम साधन है सज्जनसंगति । आत्मयोग ही परमधर्म है। ब्रह्मज्ञान केवल गुरुमुख से ही प्राप्य है। योगमार्ग ही प्रशस्त है (-१४२)। आश्रमों का फल योग है और उनकी गति है मुक्ति (-१४३)। सर्वभूतों में स्थित मुझ ईश्वर को छोड़कर अन्य की अर्चा करने वाला भस्म में हवन करता है (-१४६)। शब्द-ब्रह्म मेरा शरीर है (-१५०)। सब कर्म संसारफल देने वाले हैं। देह में ईश्वर का वास है। उसकी पूजा करनी चाहिए। चतुर्विध भूतग्राम में स्थित ईश्वर को सगुण कहते हैं। उसकी विविध मानसपुष्प से समाराधना करनी चाहिए। जिससे गुणों की साम्यता हो उसी को पूजा कहते हैं। उसको निरालम्बा पूजा कहते हैं। षोडशोपचार पूजा बाह्य है। उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती (-१७०)। चित्त ही प्राणलिंग कहा जाता है। चित्त की षट्चक्रों में धारणा करना ही प्राणलिंग धारण करना है। अघोरमन्त्र से उसकी पूजा होती है। उसका लक्ष जप करने के लिए कहा है। उसका ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत भेद वाचिक, उपांशु और मानस रूप में है (-१८५) । भक्ति, कर्म, तप, दान, दीक्षा इत्यादि सब प्रणव में है और प्रणव ही योग है । योगी सर्वदेवमय है (-१९७)। अभ्यासयोग से साकार देही निराकार हो जाता है (१९८)। योगशास्त्र में जीव और शिव में भेद नहीं है। प्राणसंयमन यही एक मार्ग है। इस अकुलागम शास्त्र को लोकोद्धार के लिए वेदशास्त्र से साम्य रखकर यह मार्ग बतलाया है (-२०६)। कलियुग ४०४० वर्ष में विध्य के दक्षिण में गंगा के दक्षिण तट पर द्विज रूप में मैं अकुलागम कहूँगा (-२१५) । यह शास्त्र अनधिकारी व्यक्ति को नहीं देना चाहिए। योग ही सर्वश्रेष्ठ है। आसनादि क्रम से प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास से वायु स्वयं व्योममण्डल में जाता है (-२३४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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