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________________ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन ६५ . मधुर जीवन 10 साध्वी विमलाकुमारी जैन-सिद्धान्त-शास्त्री मुझे अपने जीवन में अनेकों महापुरुषों के दर्शनों का निष्पाप है वहां वाणी अत्यन्त मधुर है, मीठी है। भगवान सौभाग्य सम्प्राप्त हुआ। उनमें से कितने ही महापुरुषों का महावीर के शब्दों में कहूँ तो “महुकुमे महुपिहाणे" है। हृदय अत्यन्त सरल और बालक की तरह निष्कपट दिख- उपाध्याय श्री जी की वाणी एवं व्यवहार ही ऐसा है लायी दिया । किन्तु उनके हृदय का माधुर्य उनके कार्य में कि जो एक बार उनके सम्पर्क में आता है वह सदा के और वाणी में झलकता हुआ दिखाई नहीं दिया। कितने लिए उनका बन जाता है । बुजुर्ग होते हुए भी इनका ही महापुरुषों की वाणी अमृत के समान मधुर और सरस चिन्तन प्रगतिशील है। उनमें परंपरा के प्रति अन्धाग्रह लगी; किन्तु उनके हृदय में राग और द्वेष का हलाहल नहीं है। यही कारण है कि जहाँ प्राचीन श्रद्धावाले वर्ग अठखेलियां कर रहा था; पर उपाध्याय पुष्कर मुनिजी को आपके प्रति नत है, वहाँ युवक वर्ग में भी आपकी प्रतिष्ठा मैंने इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों से पृथक् देखा । जहाँ और श्रद्धा कम नहीं है । आप जहाँ भी गये वहाँ जनता उनकी वाणी मिश्री-सी मधुर है वहाँ उनका हृदय सरल है का सम्मान, श्रद्धा और ख्याति प्राप्त हुई। मेरी हार्दिक सरस है, वहाँ कहीं भी विकारों की गन्दगी नहीं है, किन्तु मंगल कामना है कि आपके उपकारी जीवन की सरस पवित्रता की पावन महक है। जहाँ हृदय अकलुष है, सौरभ सर्वत्र महकती रहे । अभिवन्दन ! अभिनन्दन !! साध्वी दिव्यप्रभा दर्शनशास्त्री सांडेराव में सन्त सम्मेलन का भव्य आयोजन था। बालक भी आप से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । श्रद्धय सद्गुरुवर्य बम्बई से विहार कर वहाँ पर पधारे । मैं आप बड़ों से ही नहीं, किन्तु बालकों से भी उसी प्रकार का भी उस सम्मेलन में गुरुदेव श्री के दर्शन हेतु पहुँची। प्यार करते हैं जैसे भगवान भक्त से करता है। मैं यह सद्गुरुणीजी से गुरुदेव की महत्ता के सम्बन्ध में पहले देखकर आश्चर्यचकित हो गयी कि गुरुदेव श्री की मेरे बहत कुछ सुन रखा था। किन्तु दर्शन कर मुझे ऐसा अनू- पर अपार कृपा दृष्टि है। वे मेरे जीवन को समुन्नत भव हुआ कि जितना सुना है उससे कई गुना अधिक बनाने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहे। अध्ययन के व्यक्तित्व है गुरुदेव श्री का। लिए सतत प्रेरणा देते रहे। मैं आपश्री से तत्त्वार्थ सूत्र मेरा सद्भाग्य है कि सन् १९७३ का वर्षावास सद्- पढ़ती थी। कभी कठिन विषय होने पर मेरी समझ में गुरुदेव श्री का अजरामरपुरी अजमेर में हुआ और सद्- नहीं आता, तब आप पुनःपुन: विविध प्रकार से उस गुरुणी जी का भी वहीं चातुर्मास हुआ । मैं भावदीक्षिता विषय को समझाते, जिससे वह हृदयंगम हो जाय । विषय थी। मुझे सौभाग्य से आपकी सेवा का पुनीत अवसर को समझाते समय कभी भी आप ऊबते नहीं। मैंने एक मिला । मैंने देखा, गुरुदेव श्री अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं, ही बात को कई बार आपश्री से पूछा । किन्तु कभी भी करुणा के अवतार हैं। आपका व्यवहार इतना मधुर कि आपके चेहरे पर क्रोध की रेखा दिखायी नहीं दी। मुझे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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