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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६६३ सर्वप्रथम नय का लक्षण विचारा जाता है - नानास्वभावेभ्यः व्यावृत्य एकस्मिनु स्वभावे वस्तु नयतीति नयः अथवा णयवित्तिणयोभणिदो बहुहिं गुणवज्जएहिं जं दध्वं । परिणामखेत कालंतरेसु अविणट्ठ सम्भावं ॥ ( नयचक्र ) अर्थात् जो वस्तु को नानास्वभावों से हटाकर एक स्वभाव में निश्चय करता है वह नय है अथवा जो बहुत से गुण, पर्यायों से परिणाम, क्षेत्रान्तर और कालान्तरों में अविनश्वर सद्भाव वाले द्रव्य को निश्चय करता है, वह नय है । पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयो द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयनयोऽभेद विषयो व्यवहारो भेदविषयः । तत्र निश्चयो द्विविधः शुद्ध निश्चयोऽशुद्ध निश्चयश्च तत्र निरुपाधि विषयः शुद्ध निश्चयः । अथवा संसारमुक्त पर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबन्धमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहक द्रव्याथिकनयः । श्रथवा मिथ्यात्वादि गुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं । कर्मभिर्निरपेक्षो यः शुद्धद्रव्यार्थिको हि स ।। अशुद्ध निश्चयनय - औदयिकादित्रिभावान् यो व्रते सर्वात्मसत्तया । कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यावशुद्धस्तु निश्चयः ।1 ( नयचक्र ) अथवा - सोपाधि विषयोऽशुद्ध निश्चय यथा मतिज्ञानादयो जीव इति । अर्थ — अब अध्यात्मभाषा की अपेक्षा से नय कहते हैं मूल नय दो हैं-निश्चय और व्यवहार। इनमें से निश्चयनय का विषय अभेद है और व्यवहारनय का विषय भेद । उनमें से निश्चयनय दो प्रकार है- शुद्धनिश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय । उनमें से उपाधिरहित को विषय करनेवाला शुद्धनिश्चयनय है । कम्मोपाधिविवज्जिय, पज्जाया ते सहामिदि भणिदा । अर्थात् कर्मों की उपाधि से रहित हैं वे स्वभाव पर्याय हैं । ( नियमसार गाथा १५ ) संसार और मुक्त पर्यायों का आधार होकर भी प्रात्मद्रव्य कर्मों के बन्ध और मोक्ष का कारण नहीं होता है । इस अपेक्षा से परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय है । णवि होदि अध्यमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो । एवं भणति सुद्ध णाओ जो सोउ सो चेव ||६|| समयसार ॥ अर्थात् जो ज्ञायकभाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और न प्रमत्त ही है । जो नय मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में स्पष्टतया सिद्धखपने को बतलाया है, वह कर्मों की अपेक्षा से रहित शुद्धद्रव्यार्थिकनय है । [ सब्बे सुद्धा हु सुद्धणया ||१३|| ( द्रव्यसंग्रह ) शुद्धनय से सभी संसारीजीव शुद्ध हैं। टीका में कहा है कि 'शुद्धनय' से प्रयोजन 'शुद्ध निश्चयनय' से है । ] अशुद्ध निश्चयनय - जो प्रौदयिक आदि तीन भावों को ( औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक ) सम्पूर्णं आत्मसत्ता से युक्त बतलाता है, वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध निश्चयनय है अथवा उपाधिसहित को विषय करनेवाला शुद्ध निश्चयनय है जैसे मतिज्ञानादि जीवरूप हैं । Jain Education International जीव का स्वभाव व लक्षण ज्ञान है तथापि संसार अवस्था में जीव के क्षायोपशमिकज्ञान के साथ-साथ ओयिक प्रज्ञान भी पाया जाता है । शंकाकार का कहना है कि 'निश्चयनय कहता है कि जब जीव अपनी भूल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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