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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] (१) "परनिमित्त बिना होई ताहि का नाम स्वभाव है" (२) कर्मोदय से ही जीव में विकार होता है। (३) कर्ता कर्म संबंध कथंचित् एक द्रव्य में, कथंचित् भिन्न द्रव्य में ( ४ ) निगोद से निकलने में कारण [ पुरुषार्थ व कर्मोदय ] शंका- आत्मा के भाव होने से कर्मोदय होता है या कर्मोदय होने से आत्मा में भाव होते हैं ? निमित्तनैमित्तिक और कर्ता-कर्म सम्बन्ध में क्या अन्तर है ? जो जीव निगोव से निकलता है वह शुभ कर्मोदय से या अपने पुरुषार्थ से ? [ ६६१ समाधान- इस संसार विर्ष एक जीवद्रव्य और अनन्ते कर्मरूप पुद्गलपरमाणु तिनका अनादि तं एक बन्धन है । तिनमें केई कर्मफल देकर निर्जरे ( भिन्न होय ) हैं और रागादि का निमित्त पाये, केई कर्म नवीन बंधे हैं जो कर्म निमित्त बिना पहले जीव के रागादि कहिए तो रागाविक जीव का निजस्वभाव हो जाय । जातें पूर निमित्त बिना होई ताहि का नाम स्वभाव है ( मोक्षमार्ग प्रकाशक ) । समयसार गाथा ८० की तात्पर्यवृत्ति टीका में भी इसीप्रकार कहा है- 'जिसप्रकार कुंभकार ( कुम्हार ) के निमित्त से मिट्टी घड़ेरूप परिणम जाती है तैसे ही जीव के मिध्यात्वरागादि परिणामों को निमित्त पाकर कर्मवर्गगायोग्य पुद्गल द्रव्यकर्मरूप से परिणम जाते हैं। जिसप्रकार से घड़े के निमित्त से घड़े को मैं करता हूँ, इस परिणामरूप कुंभकार परिणमता है उसीप्रकार पुद्गलकर्मोदय के कारण जीव भी मिध्यात्वरागादिविभावरूप परिणमता है । समयसार गाथा २८३-२८५ को आत्मख्याति टीका में भी इसप्रकार कहा है- 'आत्मा स्वतः रागादि का अकारक ही है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान की द्विविधता का उपदेश नहीं हो सकता । प्रप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान का जो वास्तव में द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का उपदेश है वह द्रव्य और भाव के निमित्तनैमित्तिकपने को प्रगट करता हुआ आत्मा के अकर्तृस्व को हो बतलाता है । इसलिये यह निश्चित हुआ कि परद्रव्य निमित्त है और आत्मा के रागादिभाव नैमित्तिक हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो एक आत्मा के रागादिभावों का निमित्तत्व प्राजायेगा, जिससे नित्य कर्तृत्व का प्रसंग आ जायगा, जिससे मोक्ष का अभाव सिद्ध हो जायगा । इसलिये परद्रव्य ही प्रात्मा के रागादिभावों का निमित्त हो, और ऐसा होने पर, यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादि का प्रकारक ही है । समयसार गाथा २७९ को आत्मख्याति टीका में भी इसप्रकार कहा है 'वास्तव में केवल आत्मा, स्वयं परिणमन स्वभाववाला होने पर भी अपने शुद्धस्वभावत्व के कारण रागादि का निमित्तत्व न होने से अपने आप ही रागादिरूप नहीं परिणमता, परन्तु जो अपने आप रागादिभावों को प्राप्त होने से ( रागादि प्रनुभागशक्ति युक्त द्रव्यकर्म ) आत्मा को रागादि का निमित्त होता है ऐसे परद्रव्य के द्वारा रागादिरूप परिणामित किया जाता है। ऐसा वस्तुस्वभाव है ।' इन उपर्युक्त आगमप्रमाणों से यह सिद्ध हुआ कि 'वस्तुस्वभाव ( निश्चयनय ) की प्रपेक्षा कर्मोदय से जीव में विकारीभाव होते हैं ।' यह कथन उपचार या व्यवहारनय से नहीं है । 'कर्मोदय से जीव में विकार होता है' यह कथन सत्यार्थं है असत्यार्थं नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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