SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इस गाथा से स्पष्ट है कि अशुद्धपर्याय का कारण कर्मोपाधि है । संसारावस्था में कर्मोपाधि से रहित जीव की अवस्था होती नहीं है, अतः संसारावस्था में जीव की शुद्धद्रव्यपर्याय सम्भव नहीं है। -जें.ग. 18-6-70/V/का. ना कोठारी प्रात्मा : शुद्ध/अशुद्ध शंका-क्या रागद्वेष का असर ऊपरी है ? क्या आत्मा का इस हालत में भी कुछ नहीं बिगड़ा? आत्मा अब भी शुद्ध ही है क्या ? समाधान-क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय चार प्रकार की है । हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद नौ प्रकार की नोकषाय है । इनमें से माया, लोभ, हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद व नपुसकवेद ये सातों राग हैं। क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा ये छह द्वेष हैं। अतः यह सिद्ध हआ कि कषाय ही राग-द्वेष है । जहाँ कषाय नहीं वहाँ राग-द्वेष भी नहीं है । अब यह विचारना है कि कषाय जीवकोपरिणति है या अजीव की या दोनों की और कषायरूप पर्याय का तादात्म्यसम्बन्ध है या संयोगसम्बन्ध है: यदि तादात्म्यसम्बन्ध है तो क्या वह नित्य (त्रिकालिक ) तादात्म्यसम्बन्ध है या अनित्य तादात्म्यसम्बन्ध है । श्री स० सा० गाथा १६५ में यह बताया गया है कि कषाय किस द्रव्य का परिणाम है और किस प्रकार का सम्बन्ध है। वह गाथा इसप्रकार है मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य सणसण्णाद । बहुविहभेया जीवे, तस्सेव अण्णण्ण परिणामा ॥ आस्रव अधिकार प्रथम गाथा।। अर्थ-मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग यह संज्ञा (चेतन अर्थात् जीव विकार) और असंज्ञा (पुद्गल विकार, द्रव्य कर्म) भी हैं। विविध भेदवाले (संज्ञ) जो जीव में उत्पन्न होते हैं वे जीव के ही अनन्य परिणाम हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इस गाथा के द्वारा यह उपदेश दिया है कि राग द्वेष प्रात्मा (जीव) की निजपरिणति है और वह जीव से अभिन्न है। इसी बात को श्री उमास्वामी आचार्य ने मो० शा के दूसरे अध्याय में कहा है जो इस प्रकार है-औपशमिकक्षायिको भावी मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥१॥ गतिकषायलिङ्गमिथ्या. वर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्यकैकैकैकषड्भेदाः ॥६॥ प्रथमसूत्र में प्रौदयिकभाव को जीव का स्वतत्त्व कहा है और सूत्र ६ में कषाय ( राग-द्वेष ) को प्रौदयिक भाव कहा है । इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि राग-द्वेष (कषाय) जीव के स्वतत्त्व (निजपर्याय) हैं । श्री कुन्दकुन्द भगवान प्र० सा० में यह उपदेश देते हैं कि जिससमय जो द्रव्य जिस पर्यायरूप परिणमता है, उस समय उसद्रव्य का उस पर्याय से तादात्म्यसम्बन्ध होता है अर्थात् उस समय द्रव्य उस पर्याय से तन्मय हो जाता है। गाथा इस प्रकार है परिणमदि जेण दवं, तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो, आवा धम्मो मुरणेयध्वो ॥८॥ जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धण तवा सुद्धो, हवदि हि परिणाम सम्भावो ॥९॥ अर्थ-द्रव्य जिस रूप परिणमन करता है उस समय उसमय है ऐसा कहा गया है। इसलिये धर्मपरिणत प्रात्मा को धर्म समझना चाहिए ॥८॥ जीव परिणामस्वभावी होने से जब शुभ या अशुभ भावरूप परिणमन करता है तब शुभ या अशुभ ( स्वयं ही ) होता है । और जब शुद्धभावरूप परिणमित होता है तब शुद्ध होता है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy