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________________ ९४६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इस कलश में जिस ज्ञानी का कथन किया गया है उसके दो विशेषण दिये गये हैं। १. ज्ञानी होते ही समस्त बुद्धिपूर्वक राग का ( वह राग जो अपने ज्ञान गोचर होय, उस राग का ) प्रभाव हो जाय है और अबुद्धिपूर्वक राग ( अपने ज्ञान में न आवे तथा श्रेणो में होने वाले ऐसे कर्मोदय जनित राग) का अभाव करने के लिये अपनी ज्ञानानुभवनरूप शक्ति (जहां पर राग-द्वेष का अनुभवन न हो ऐसी शक्ति ) को प्रयोग में लावे है। २. ज्ञानी होते ही ज्ञानको पलटन ( विकल्प ) समाप्त हो जाती है और निर्विकल्पसमाधि ( शुक्लध्यान ) में स्थित हो जाता है। ज्ञानी के इन दोनों विशेषणों से स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पर प्रसंयतसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा कथन नहीं है, क्योंकि उसके न तो समस्त बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होता है और न समस्त ज्ञान की पलटन दूर होती है । यद्यपि राग को हेय जानता है तथापि उसका राग बाह्य विषय का पालम्बन लेकर प्रवर्तता है और स्वयं उसका अनुभव होता है तथा दूसरे भी उस राग को अनुमान से जान लेते हैं। अतः वह राग बुद्धिपूर्वक है। समयसार टिप्पण में कहा भी है ___ "बुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा ये मनोद्वारा बाह्यविषयानालंब्य प्रवर्तते, प्रवर्तमानश्च स्वानुभवगम्याः अनुमानेन परस्यापिगम्या। अबुद्धिपूर्वकास्तु परिणामा इन्द्रियमनोव्यापारमंतरेण केवलमोहोदयनिमित्तास्ते तु स्वानुभवागोचरस्वादबुद्धिपूर्वका इति विशेषः।" समयसार पृ० २४६ रायचन्द ग्रंथमाला अर्थ-जीव के जो परिणाम बाह्य विषय का आलम्बन लेकर मन के द्वारा प्रवृत्त होता है तथा स्वानुभवगम्य है और अनुमान के द्वारा दूसरों से भी जाना जाता है वह प्रात्म-परिणाम बुद्धिपूर्वक कहलाता है। किन्तु जो परिणाम इन्द्रिय और मन के व्यापार के बिना मात्र मोहोदय के निमित्त से होता है और जो स्वानुभव गोचर भी नहीं है वह अबुद्धिपूर्वक परिणाम है। इसप्रकार स्वयं कलश ११६ के अर्थ से तथा संस्कृत टिप्पणी से कलश ११६ का अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। -जै. ग. 24-4-69/V/र. ला. न "ज्ञान बिन कर्म झरै जे" पद्यांश में ज्ञानबिन का अर्थ शंका-कोटि जनम तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरे जे । ज्ञानी के छिनमांहि त्रिगुप्तितै सहज टरै ते । छहढाला के उपर्युक्त पद्य में 'ज्ञान बिन' अर्थात् अज्ञानी से-मिथ्यादृष्टि से प्रयोजन है ? या पूर्ण ज्ञान के अभावरूप अज्ञान से प्रयोजन है ? सम्यग्दृष्टि के यद्यपि पूर्णज्ञान का अभाव है, किन्तु सम्यग्ज्ञान के सद्भाव के कारण वह अज्ञानी नहीं कहला सकता है। समाधान-'ज्ञानी' शब्द का अनेक अर्थ में प्रयोग हुआ है । जैसे ज्ञान और प्रात्मा का तादात्म्य सम्बन्ध है, अतः प्रत्येक जीव ज्ञानी है । पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल में ज्ञान नहीं है अतः वे ज्ञानरहित ( अज्ञानीअचेतन ) हैं। कहीं पर मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को अज्ञान कहा गया है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि का ज्ञान, ज्ञान का कार्य नहीं करता है। कहा भी है 'ज्ञानाज्ञानविभागस्तु मिथ्यात्व कर्मोदयानुदयापेक्षः।' रा. वा० २०१६ मिथ्यात्व कर्मोदय के कारण ज्ञान भी अज्ञान है । मिथ्यात्व कर्म का अनुदय होने पर, वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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