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________________ ९४२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "अशेषबाह्यार्थग्रहणे सत्यपि न केवलिनः सर्वज्ञता, स्वरूपपरिच्छित्त्यभावादित्युक्त आह-'पस्सदि' त्रिकालगोचरानन्तपर्यायोपचितमात्मानं च पश्यति ।" धवल पू०१३ अर्थ-केवलज्ञान द्वारा अशेष बाह्य पदार्थों का ग्रहण होने पर भी भगवान आत्मा का सर्वज्ञ होना सम्भव नहीं है. क्योंकि उनके स्वरूप परिच्छित्ति का अभाव है, ऐसी आशंका के होने पर सत्र में 'पश्यति' कहा है, अर्थात् दर्शनोपयोग के द्वारा वे त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायों से उपचित प्रात्मा को भी देखते हैं। जिसप्रकार चुम्बक में आकर्षण शक्ति है उसी प्रकार लोह में आकर्षणीय शक्ति है, अन्यथा लोहे का चुम्बक द्वारा आकर्षण नहीं हो सकता था। इसी प्रकार प्रत्येकद्रव्य में ज्ञेयशक्ति है अन्यथा वह ज्ञानका विषय नहीं हो सकता था। कहा भी है "प्रमाणेन स्वपररूपं परिच्छेद्य प्रमेयम् ।" आलापपद्धति प्रमाण अर्थात् ज्ञान के द्वारा अस्ति नास्तिरूप परिच्छेद्य ( जाना जाने योग्य ) शक्ति को प्रमेय या ज्ञेय गुण कहते हैं। आत्मा में ज्ञान गुण है और पदार्थों में ज्ञेय गुण है अतः प्रात्मा और पदार्थों में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है। -जं. ग. 28-1-71/VII/ रो. ला. (१) रागद्वेषरूप प्रवर्तन करने वाले का ज्ञान-दर्शन कथंचित् अयथार्थ है। (२) चारित्र से ही ज्ञान व दर्शन यथार्थता पाते हैं शंका-जैसे बच्चे को ज्ञान नहीं है कि आग से हाथ जल जाता है और वह बेखटके आग में हाथ दे देता है। जब उसको यह ज्ञान व श्रद्धान हो जाता है कि आग में हाथ देने से हाथ जल जाता है तो वह आग में हाथ नहीं देता है । इसी प्रकार जिसको यह ज्ञान व श्रद्धान हो गया कि रागादिक भाव आस्रव व बन्ध के कारण हैं उस पुरुष को रागादि नहीं करने चाहिये । यदि वह पुरुष रागादि भावरूप परिणत होता है तो उसके श्रद्धान व ज्ञान को यथार्थ कहा जा सकता है क्या ? समाधान-सम्यग्दर्शन दो प्रकार है ( १ ) सरागसम्यग्दर्शन और ( २ ) वीतरागसम्यग्दर्शन । कहा भी है "तत् द्विविधं सरागवीतरागविषय भेदात् ।" जबतक बुद्धिपूर्वक राग है अर्थात् चतुर्थगुणस्थान से सातवेंगुणस्थान तक सरागसम्यग्दर्शन है, यहीं तक प्रायु का बन्ध होता है। आठवेंआदि गुणस्थानों में अर्थात् क्षपकश्रेणी में बुद्धिपूर्वकराग का अभाव हो जाने से वीतरागसम्यग्दर्शन है, वहाँ पर आयु का बन्ध नहीं होता है । "बुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा ये मनोद्वारा बाह्यविषयानालंख्य प्रवर्तते, प्रवर्तमानाश्च स्वानुभवगम्याः अनुमानेन परस्यापि गम्या भवंति । अबुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा इन्द्रियमनोव्यापारमंतरेण केवलमोहोदय निमित्तास्ते तु स्वानुभवागोचरात्वादबुद्धिपूर्वका इति विशेषः।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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