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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ९३९ वह प्रमाण अर्थात् सम्यग्ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है । कहा भी है तवधा ॥१॥ प्रत्यक्षतरभेदात् ॥२॥ विशदं प्रत्यक्षम् ॥३॥ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः संव्यावहारिकम् ॥५॥ सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतोमुख्यम् ॥११॥ परीक्षामुख अ० २ प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से वह प्रमाण दो प्रकार का है। विशद सम्यग्ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण कहलाता है। वह प्रत्यक्षप्रमाण सांव्यावहारिक और मुख्य प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का होता है। इद्रिय और मनके निमित्त से होने वाले एकदेशविशद ज्ञानको सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। सामग्री की विशेषता से अर्थात् उत्तम संहनन, योग्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव आदि की पूर्णरूप से प्राप्ति होने पर जिसके समस्त प्रावरण दूर हो गये हैं ऐसे अतीन्द्रिय तथा पूर्णतया विशद सम्यग्ज्ञान को मुख्यप्रत्यक्ष कहते हैं । ऊपर यह बताया जा चुका है कि जिस समय छद्मस्थ यात्मा स्वोन्मुख होता है तब उसे पर पदार्थों के समान स्व का अनुभव अर्थात् स्वानुभव होता है। इस पर यह प्रश्न होता है कि यह स्वानुभव प्रत्यक्षप्रमाण (प्रत्यक्ष सम्यग्ज्ञान) है या परोक्षप्रमाण ( परोक्ष सम्यग्ज्ञान ) ? यदि प्रत्यक्षप्रमाण है तो सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष है या मुख्य प्रत्यक्ष ? इसके सम्बन्ध में वृहद्रव्यसंग्रह में निम्न प्रकार लिखा है "शब्दात्मकं श्र तज्ञानं परोक्षमेव तावत् स्वर्गापवर्गादिबहिविषयपरिच्छित्तिपरिज्ञानं विकल्परूपं तदपि परोक्षम् यत्पुनरभ्यन्तरे सुखदुःखविकल्परूपोऽहमनन्तज्ञानादिरूपोहमिति वा तदीषत परोक्षम यच्चनिश्चय भाव श्रतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमपीन्द्रियमनोज नितरागादिविकल्पजाल रहितत्वेन निविकल्पम, अभेदनयेन तदेवात्म शब्दवाच्यं वीतरागसम्यकचारित्राविनाभूतं केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमपि संसारिणो क्षायिकज्ञानाभावात क्षायोपशमिकमपि प्रत्यक्षमभिधीयते । अत्राह शिष्यः-आद्य परोक्षमिति तत्त्वार्थस मति तद्वय परोक्षं भणितं तिष्ठति कथं प्रत्यक्षं भवतीति ? परिहारमाह-तदुत्सर्गव्याख्यानम्, इदं पुनरपवादव्याख्यानम । यदि तत्सर्गव्याख्यानं न भवति तहि मतिज्ञानं कथं तत्त्वार्थे परोक्ष भणितं तिष्ठति । तर्कशास्त्रे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षं कथं जातम। यथा अपवादव्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रत्यक्षज्ञानम् तथा स्वात्माभिमुखं भावध तज्ञानमपि परोक्षं सत् प्रत्यक्ष भण्यते। यदि पुनरेकान्तेन परोक्षं भवति तहि सुखदुःखादिसंवेदनमपि परोक्षं प्राप्नोति, न च तथा।" अर्थ-जो शब्दात्मक श्रुतज्ञान है वह तो परोक्ष है ही तथा स्वर्ग, मोक्ष आदि बाह्य विषयों का बोध करा देने वाला विकल्परूप जो ज्ञान है वह भी परोक्ष है और अभ्यन्तर में "सुख दुःखरूप मैं हूँ अथवा मैं अनन्त ज्ञानादि रूप हूँ" ऐसा जो विकल्प है वह भी ईषत् परोक्ष है। जो निश्चय भावथ तज्ञान है वह शुद्धात्मा के अभिमुख होने से सुखसंवित्ति-सुखानुभवरूप है। यद्यपि वह निजआत्मज्ञानाकार की अपेक्षा सविकल्प है तथापि इन्द्रिय तथा मन जनित रागादि विकल्पसमूह से रहित होने के कारण निर्विकल्प है और अभेदनय से वही ज्ञान 'आत्मा' शब्द से कहा जाता है तथा वह वीतराग सम्यकचारित्र के बिना नहीं होता। केवलज्ञान की अपेक्षा यद्यपि वह ज्ञान परोक्ष है तथापि संसारियों के क्षायिक ज्ञान का अभाव होने से क्षायोपशमिक होने पर भी प्रत्यक्ष कहा जाता है। यहाँ पर शिष्य शंका करता है कि "आद्य परोक्षम्", इस तत्त्वार्थसूत्र में मति और श्रुत; दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है । फिर श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में जो श्रुतज्ञान को परोक्ष कहा गया है वह उत्सर्ग व्याख्यान की अपेक्षा कहा है और भावश्रुत प्रत्यक्ष है, ऐसा अपवाद की अपेक्षा कथन है। यदि तत्त्वार्थ सूत्र में उत्सर्ग कथन न होता तो मतिज्ञान परोक्ष कसे कहा जाता? यदि मतिज्ञान परोक्ष ही होता तो तर्कशास्त्र में उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसे कहते ? इसप्रकार जैसे अपवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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