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________________ ध्यक्तित्व और कृतित्व ] [९३७ द्रव्य-गुण-पर्याय को जानते हुए भी यदि ज्ञान न्यूनता, अधिकता, विपरीतता या संदेहसहित है तो वह ज्ञान सम्यक नहीं हो सकता है । -जै. ग./8-2-73/VII/ सुलतानसिंह (१) सम्यग्ज्ञानी के स्वानुभूति, स्वानुभव व स्वसंवेदन के स्वरूप एवं इनके विषयो का निर्णय (२) सुख-दुःख का अनुभव प्रात्मप्रत्यक्ष है या आत्मपरोक्ष, इसका निर्णय शंका-सम्यग्ज्ञानी को स्वानुभूति, स्वानुभव व स्वसंवेदन अतीन्द्रियप्रत्यक्ष होते हैं या मानसप्रत्यक्ष होते हैं ? इसी प्रकार जो सुख दुःख का अनुभव होता है वह मानसप्रत्यक्ष होता है या अतीन्द्रियप्रत्यक्ष ? स्वानुभूति, स्वसंवेदन व स्वानुभव के क्या अर्थ हैं ? स्पष्ट करें। समाधान-आत्मा का मुख्य गुण चेतना है। इसी चेतना के पर्यायवाची नाम अनुभव और वेदना भी हैं । अनुभव या अनुभूति अथवा संवेदन चेतना से भिन्न नहीं हैं। कहा भी है -'चेतयन्ते अनुभवन्ति उपलभन्ते विन्दन्तीत्येकार्यश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् ।' पं० का० पृ० १३० अर्थ-चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है और वेदन करता है। ये सब एकार्थ वाचक हैं, क्योंकि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदना का एक ही अर्थ है । चैतन्यमनुभवनम् । अनुभूति वाजीवादिपदानां चेतनमात्रम् । आ० ५० ___ अर्थ-अनुभवन ही चैतन्य है । जीव, अजीव प्रादि पदार्थों का चेतनमात्र अनुभूति है । वह चेतना, अनुभव अनभति अथवा संवेदन तीन प्रकार का होता है-कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना। समस्त स्थावरजीव कर्मफल को चेतते हैं, अनुभव करते हैं वेदन करते हैं । त्रसजीव कर्म को चेतते हैं और केवलज्ञानी ज्ञान को चेतते हैं। कहा भो है-"स्थावराः कर्मफलं चेतयन्ते, प्रसाः कार्य चेतयन्ते, केवलज्ञानिनो ज्ञानं चेतयन्ते इति । [पं० का• पृ० १३.] ___ अर्थ-स्थावर कर्मफल ( सुख-दुःख ) को चेतते हैं, त्रस कार्य ( कर्म-चेतना ) को चेतते ( वेदन , करते ) हैं तथा केवलज्ञानी ज्ञान चेतना को चेतते (वेदन करते) हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य एवं श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय में यह स्पष्ट कर दिया है कि केवलज्ञानी के मात्र ज्ञानचेतना का संचेतन ( संवेदन, अनुभवन या अनुभूति ) होता है। इस चेतनागुण का परिणमन स्वरूप उपयोग दो प्रकार का होता है-(१) ज्ञानोपयोग (२) दर्शनोपयोग कहा भी है-"उवओगो-आत्मनश्चतन्यानुविधायिपरिणाम उपयोगः । चैतन्यमनविवधात्यन्वयरूपेण परिणमति अथवा पदार्थपरिच्छित्तिकाले घटोयं पटोयमित्याद्यर्थग्रहणरूपेण व्यापारयति इतिचैतन्यानुविधायी स्फुट द्विविधः । सविकल्पं ज्ञानं निर्विकल्पं दर्शनं ।" पं० का० पृ० १३९ । आत्मा का वह परिणाम जो उसके चैतन्य गुण के साथ रहने वाला है उसको उपयोग कहते हैं अथवा जो चैतन्यगण के साथ-साथ अन्वयरूप से परिणमन करे सो उपयोग है अथवा जो पदार्थ के जानने के समय यह घट है यह पट है इत्यादि पदार्थों को ग्रहण करता हुमा व्यापार करे सो उपयोग है, वह उपयोग दो प्रकार का है। १. ज्ञानोपयोग २. दर्शनोपयोग । सविकल्प उपयोग ज्ञानोपयोग है। निर्विकल्प उपयोग दर्शनोपयोग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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