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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १५०५ से अमृतकुम्भ भी है" इन शब्दों द्वारा प्रतिक्रमण को अमृतकुम्भ भी कहा है, किन्तु निर्विकल्पसमाधि में (श्र ेणी में) प्रतिक्रमणादि के विकल्प को विषकुम्भ कहा है । किन्तु श्र ेणी में शुभ भाव तो रहते हैं, क्योंकि श्री वीरसेनादि आचार्यों ने धर्मध्यान दसवेंगुरणस्थानतक बतलाया है। दसवेंगुणस्थानतक वीतराग व रागरूप मिश्रितभाव रहते हैं और इस मिश्रित भाव का नाम शुभोपयोग है । यहाँ पर प्रकररणवश संक्षेप में यह बतलाया गया है कि शुभभाव संवर, निर्जरा तथा मोक्ष का भी कारण है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'पुण्यका फल अरहंतपद है' ऐसा प्रवचनसार गाथा ४५ में कहा है । किन्तु सोनगढ़ के नेता उस पुण्य को विष्ठा बतलाते हैं । विष्ठा महान् अपवित्र मल है । - ज. ग. ६ मई १९६६ पृ. ५ (१७) (१) क्या पुण्यपाप भाव अकेले नहीं होते ? (२) हिंसा करते समय कसाई के पुण्यबन्ध कहना अनुचित है । शंका-क्या पुण्य-पाप भाव अकेले नहीं होते ? समाधान - श्री कानजी स्वामी की पुण्य-पाप-भाव के विषय में विचित्र मान्यता है । 'मोक्षमार्गप्रकाशक की किरण' तीसरा अध्याय पृ. १२२ प्रकरण ७२ का शीर्षक इसप्रकार है- " पुण्य-पाप अकेले नहीं होते, धर्म अकेला होता है ।" इसको सिद्ध करने के लिये यह लिखा गया है-"यदि मन्दकषायरूप पुण्य सर्वथा न हो ( एकान्त पाप ही हो ) तो चैतन्य नहीं कर सकता । और वर्तमान में चैतन्य का जितना विकास है वह बंध का कारण नहीं होता । हिंसा करते समय भी कसाई को अल्प- अल्प पुण्यबन्ध होता है । हिंसाभाव पुण्यबन्ध का कारण नहीं है, किन्तु उसी समय चैतन्य का अस्तित्व है - ज्ञान का अंश उस समय भी रहता है, इससे सर्वथा पाप में युक्तता नहीं होती ।" सोनगढ़वालों के इस विवेचन से यह सिद्ध होता है कि सोनगढ़ की मान्यता के अनुसार हिंसा करते समय भी साई सर्वथा पाप से युक्त नहीं होता, किन्तु मन्दकषायरूप पुण्य भी होता । यदि मन्दकषायरूप पुण्य सर्वथा हो ( एकान्त से पाप ही हो ) तो चैतन्य नहीं रह सकता । इसीलिये यह कहा गया है कि हिंसा करते समय भी कसाई को अल्प- अल्प पुण्यबन्ध होता है । सोनगढ़ के नेताओं की उपर्युक्त मान्यता आर्ष ग्रन्थ विरुद्ध है, क्योंकि हिंसा करते समय कसाई के मंदकषायरूप पुण्य नहीं हो सकता है । यदि कसाई के मंदकषाय हो तो वह हिंसा नहीं कर सकता । यज्जन्तु वधसंजात- कर्मपाकाच्छरीरिभिः । श्वभ्राद्रौ सह्यते दुःखं तद्वक्त ं केन पार्यते ॥ ८ ॥ १२ ॥ ज्ञानार्णव अर्थ - शरीरधारी अर्थात् जीवों के घात करने से पापकर्म उपार्जन होता है, उस पापकर्म से जीव नरक में जाता है और वहाँ पर जो दुःख भोगने पड़ते हैं वे वचन अगोचर हैं । Jain Education International नरकआयु का बन्ध तीव्रकषाय के उदय में होता है, मंदकषाय के उदय में नरकायु का बंध नहीं होता, उससमय देव, मनुष्यायु का बन्ध होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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