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________________ ६२८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : __ अर्थ-भगवान ने दो नय कहे हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । दिव्यध्वनि में कथन एक नय के प्राचीन नहीं होता है, किन्तु दोनों नयों के आधीन होता है । द्रव्याथिकनय को निश्चयनय भी कहते हैं, क्योंकि द्रव्याथिक और निश्चयनय इन दोनों का विषय द्रव्य अर्थात् सामान्य है। पर्यायाथिकनय को व्यवहारनय भी कहते हैं, क्योंकि दोनों का विषय पर्याय अथवा विशेष है । कहा भी है णिच्छयववहारणया मूलमभेया णयाण सध्वाणं । णिच्छय साहणहेओ दध्वयपज्जस्थिया मुणह ॥ ४ ॥ आलापपद्धति । सब नयों के मूल भेद निश्चयनय और व्यवहारनय हैं । निश्चयनय द्रव्याथिक है। साधनरूप व्यवहारनय पर्यायाथिकनय है। जो मात्र निश्चयनय अर्थात् द्रव्याथिकनय को ही स्वीकार करते हैं और व्यवहारनय अर्थात् पर्यायाथिकनय के विषय को स्वीकार नहीं करते हैं। उनको श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पर्यायविमूढ़ परसमय कहा है। "पज्जयमूढा हि परसमया-नारकाविपर्यायरूपो न भवाम्यहमिति भेदविज्ञानमूढाश्च परसमया मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति । तस्मादियं पारमेश्वरी द्रव्य गुणपर्यायव्याख्या समीचीना भद्रा भवतीत्यभिप्रायः।" प्रवचनसार गाथा ९३ टीका पर्यायमूढ़ जीव परसमय है-मैं नारकादि पर्यायरूप नहीं हूं इस प्रकार जो भेदविज्ञान मूढ़ हैं वे परसमय मिथ्याडष्टि हैं। इसलिये यही जिनेन्द्र परमेश्वर की करी हुई द्रव्य-गुण-पर्याय की समीचीन व्याख्या कल्याणकारी है। णिययवयणिज्जसच्चा सम्वणया परवियालणे मोहा। ते उण न विट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलीए वा ॥११७॥ ज.ध. १।२३३ ये सभी नय अपने-अपने विषय का कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण में मूढ़ हैं। अनेकान्तरूप समय के ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है' इसप्रकार का विभाग नहीं करते हैं । जयधवल पु०१पृ० २५७ जब कोई भी नय झूठा नहीं है तो प्रत्येक नय से वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है। वस्तु का यथार्थ ज्ञान मोक्ष का कारण है । कहा भी है "प्रमाणादिव नयवाक्यावस्त्ववगममवलोक्य 'प्रमाणनयर्वस्त्वधिगमः' इति प्रतिपावितत्वात् । किमर्थ नय उच्यते ? स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वाद भावानां योऽपदेशः।" ( जयधवल पु० १ पृ० २०९ व २११, नया संस्करण पृ० १९१-९२) जिसप्रकार प्रमाण से वस्तु का बोध होता है उसी प्रकार नय वाक्य से भी वस्तु का ज्ञान होता है। यह देखकर तत्त्वार्थसूत्र में 'प्रमाण व नय से वस्तु का ज्ञान होता है' ऐसा कहा गया है। पदार्थों का जैसा स्वरूप है उस रूप से उनके ग्रहण करने में नय निमित्त होने से मोक्ष का कारण है। वस्तु के ग्रहण करने में पर्यायाथिक अथवा व्यवहारनय भी कारण है अतः वह भी मोक्ष का कारण है। -जं. ग. 6-5-71/VII/ सुलतानसिंह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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