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________________ १४९८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : चु कि महान् पुण्य से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है, इसलिए सम्यग्दृष्टि विचार करता है कि यह पुण्य मेरे किस प्रकार हो सकता है। श्री जिनसेन आचार्य ने कहा भी है उपायविचयं तासां पुण्यनामात्मसात्किया। उपायः स कथं मे स्यादिति सङ्कल्पसन्ततिः ॥५३॥४१॥ (हरिवंश पुराण) ___ अर्थ--पुण्यरूप योग-प्रवृत्तियों को अपने अधीन करना उपाय है। वह उपाय अर्थात् पुण्यरूप योग-प्रवृत्तियां मेरे किस प्रकार हो सकती हैं, इस प्रकार के संकल्पों की जो सन्तति है, वह उपाय-विचय दूसरा धर्म ध्यान है। जिस प्रकार मनुष्य-शरीर के बिना संयम व तप नहीं हो सकता उसी प्रकार महान् (सातिशय) पुण्योदय के बिना संयम व तप नहीं हो सकता । सम्यग्दृष्टि मुनि जिस प्रकार रत्नत्रय के लिए शरीर का पालन करता है, उसी प्रकार रत्नत्रय के लिए पुण्य-उपार्जन करता है। आर्ष ग्रन्थों में विषय-भोगों के लिए शरीर-पालन का निषेध है उसी प्रकार विषय-भोगों की इच्छा से पुण्य-उपार्जन का निषेध है किन्तु रत्नत्रय के लिए शरीर-पालन व पुण्यउपार्जन का निषेध नहीं है अपितु उपर्युक्त पार्ष-ग्रन्थों में उसका विधान है । अल्प-लेप के भय से यदि पुण्योपार्जन नहीं किया जायगा तो पुण्याभाव में रत्नत्रय की प्राप्ति न होने से संसार में भ्रमण करना पड़ेगा। मनुष्यजाती भगवत्प्रणीत-धर्माभिलाषो मनसश्च शांतिः । निर्वाण-भक्तिश्च दया च दानं प्रकृष्टपुण्यस्य भवन्ति पुसः॥८॥५६॥ (वरांगचरित) मनुष्य पर्याय में जन्म धारण करके जिनेन्द्र भगवान के द्वारा निरूपित धर्म की अभिलाषा, मन की शांति, निर्वाण की इच्छा, दान तथा दया के परिणाम महान् पुण्यशाली पुरुष के होते हैं । चूकि पुण्योदय से जन-धर्म में प्रवृत्ति होती है इसीलिए प्राचार्योंने पुण्योपार्जन की प्रेरणा की है। परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः । तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥२६॥ ( आत्मानुशासन ) श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है-जीव के परिणाम ही पुण्य और पाप के कारण हैं। इसलिए पाप का नाश करते हुए भलेप्रकार पुण्य का संचय करना चाहिए। ___ सम्यग्दृष्टि को जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा होती है, अतः वह उपर्युक्त उपदेशानुसार पुण्य-संचय करता है। सम्यग्दृष्टि पुण्य को सर्वदा हेय नहीं समझता। (१५) पुण्य-पाप सम्बन्धी विशेष प्रश्नोत्तर शंका-पुण्य किसे कहते हैं ? समाधान - 'पु नात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् ।' अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह 'पुण्य' है। शंका-'पण्य' 'धर्म' है या 'अधर्म' ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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