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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४८५ 'समयसार' गाथा ६ में कहा है कि 'जीव न प्रमत्त है और न अप्रमत्त है अर्थात् न संसारी और न मुक्त है।' यह कथन एकत्वविभक्त प्रात्मा की अपेक्षा तो सत्य है, भूतार्थ है, किन्तु सर्वथा सत्य नहीं है, क्योंकि संसारी जीव प्रत्यक्ष देखने में आ रहे हैं। श्री उमास्वामी आचार्य ने भी 'तत्वार्थसूत्र' के दूसरे अध्याय में 'संसारिणो मुक्ताश्च ।' सूत्र द्वारा जीव संसारी और मुक्त ऐसे दो प्रकार के बतलाये हैं तथा 'रयगसार' में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने जीव को बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा तीन प्रकार का बतलाया है। यदि 'समयसार' गाथा ६ के कथन को एकत्व विभक्त प्रात्मा की अपेक्षा न लगाकर सर्वथा सत्य मान लिया जाय तो मोक्षमार्ग का उपदेश व्यर्थ हो जायगा। 'समयसार' गाथा ७ में कहा है कि 'जीव के न ज्ञान है, न दर्शन है, न चारित्र है । व्यवहारनय से ज्ञान कहे गये हैं।' गाथा ११ में व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा है, यह कथन एकत्वविभक्त-प्रात्मा की अपेक्षा सत्यार्थ है। यदि इस कथन को सर्वथा सत्यार्थ मान लिया जाय तो श्री उमास्वामी आचार्य का 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह सूत्र व्यर्थ हो जायगा। 'समयसार' गाथा १३ की टीका में जहाँ पर पुण्य-पाप को जीव के विकार कहा है, वहाँ पर मोक्ष को भी जीव का विकार कहा है । वह वाक्य इस प्रकार है 'केवलजीवविकाराश्च पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणाः ।' अर्थ-पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष जिसका लक्षण है ऐसा केवल ( अकेले ) जीव का विकार है। यदि कोई इस वाक्य से यह फलितार्थ करे कि पुण्य-पाप सर्वदा समान हैं तो उसको यह भी स्वीकार करना होगा कि प्रास्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष ये सब भी सर्वथा समान हैं। किन्तु जिस प्रकार जीव विकार की अपेक्षा आस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्ष ये सब समान हैं, उसी प्रकार जीवविकार की अपेक्षा पुण्य-पाप भी समान हैं। जिस प्रकार आस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्ष में अन्तर है, सर्वथा समान नहीं हैं, उसी प्रकार पुण्य-पाप में भी अन्तर है, सर्वथा समान नहीं हैं । 'समयसार' पुण्य-पाप अधिकार में दृष्टान्त दिया है कि एक ही माता के उदर से दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें से एक ब्राह्मण के यहाँ पला और दूसरा शूद्र के यहाँ पला । जो ब्राह्मण के यहाँ पला वह तो मद्य आदि का त्याग कर देता है अर्थात् श्रावक के प्रष्ट मूलगुण पालन कर धर्म-मार्ग पर लग जाता है और जो शूद्र के यहाँ पला था वह नित्य मदिरा प्रादि का सेवन करता है अर्थात् जैनधर्म से विमुख रहता है तथा धर्मोपदेश का पात्र भी नहीं होता । एक ही माता के उदर से उत्पन्न होने के कारण समान होते हुए भी, दोनों में बहुत अन्तर है, क्योंकि एक धर्ममार्गी है और एक धर्म से विमुख है। इस प्रकार पुण्य और पाप दोनों का उपादान कारण एक होने पर भी उनमें बहुत अन्तर है, क्योंकि पुण्योदय [ उत्तम संहनन, उच्चगोत्र, तीर्थंकर प्रकृति आदि ] मोक्षमार्ग में सहकारी है और पापोदय [ हीन संहनन, नीच गोत्र आदि ] मोक्षमार्ग में बाधक है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने 'समयसार' गाथा १४५ की टीका में कहा भी है "शुभाशुभी मोक्षबंधमागौं" अर्थात्-शुभ (पुण्य) मोक्षमार्ग है और अशुभ (पाप) बन्धमार्ग है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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