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________________ १४७४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : पैदा किये हुए पुण्य का एक फल मात्र है। जैसे जो भार ढोनेवाला अपने भार को दो कोस तक आसानी और शीघ्रता के साथ ले जा सकता है, तो क्या वह अपने भार को प्राधा कोस ले जाते हुए खिन्न होगा ? नहीं होगा ॥४॥ यहाँ पर भी यही कहा गया है-आत्मा के जो परिणाम मोक्ष के कारण हैं उन्हीं प्रात्मपरिणामों से पुण्यबंध होकर स्वर्गलोक मिलता है । गुरूपदेशमासाद्य ध्यायमानः समाहितः । अनन्तशक्तिरात्मायं भुक्ति मुक्ति च यच्छति ॥ ( त. अ. गा. १९६) अर्थ-गुरु का उपदेश मिलने पर एकाग्र-ध्यानियों के द्वारा यह अनन्त शक्ति-युक्त अर्हन् प्रात्मा का ध्यान किया जाता है जो मुक्ति तथा भुक्ति ( पुण्य के फल रूप भोगों) को प्रदान करता है। ओंकारं बिन्दु-संयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः॥ अर्थात्---मुनिजन बिन्दुसहित ओंकार का नित्य ध्यान करते हैं। वह ओंकार पुण्य के फलस्वरूप भोगों तथा मोक्ष को देने वाला है । इसलिये प्रोंकार को नमस्कार हो । श्री वीरसेन आचार्य भी कहते हैं कि रत्नत्रय स्वर्ग का भी मार्ग है और मोक्ष का भी मार्ग है'स्वर्गापवर्गमार्गत्वाद्रत्नत्रयं प्रवरः । स उद्यते निरूप्यते अनेनेति प्रवरवादः ॥' (ध० १३।२८७ ) अर्थ-स्वर्ग का मार्ग और मोक्ष का मार्ग होने से रत्नत्रय का नाम प्रवर है। उसका वाद अर्थात् कथन इसके द्वारा किया जाता है, इसलिये इस आगम का नाम प्रवरवाद है। (यहाँ पर भी यही कहा गया है कि रत्नत्रय मोक्ष का भी कारण है और पुण्यबंध का भी कारण है, जिससे स्वर्ग मिलता है । ) एक ही आत्मपरिणाम से मोक्ष और पुण्यबन्ध कैसे हो सकता है ? इसका विशद विवेचन श्री पूज्यपाद आचार्य ने सर्वार्थसिद्धि में इस प्रकार किया है 'ननु च तपोऽभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्तिहेतुत्वाभ्युपगमात्, तत् कथं निर्जराङ्ग स्यादिति ? नैष दोषः, एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत् । यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेवनभस्माङ्गारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः ।' अर्थ-तप को अभ्युदय का कारण मानना इष्ट है, क्योंकि वह देवेन्द्र आदि स्थान-विशेष की प्राप्ति के हेतु रूप से स्वीकार किया गया है अर्थात् तप को पुण्यबंध का कारण माना गया है। इसलिये वह निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है ? यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अग्नि के समान तप एक होते हुए भी इसके अनेक कार्य देखे जाते हैं। जैसे अग्नि एक है तथापि उसके विक्लेदन, भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं वैसे ही तप अभ्युदय और कर्मक्षय [मोक्ष] इन दोनों का कारण है। ऐसा मानने में क्या विरोध है ? यहाँ पर अग्नि का दृष्टान्त देकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जैसे एक अग्नि से अनेक कार्य देखे जाते हैं उसी प्रकार एक ही तप से पुण्यबंध और कर्म निर्जरा दोनों कार्य देखे जाते हैं । इसी बात को श्री वीरसेन आचार्य भी कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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