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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६२३ माया, मिथ्या, निदान इन शल्यों से रहित होने पर निःशल्य होता है अतः निशल्य का अर्थ मात्र सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। पंचमगुणस्थान में ही जीव निःशल्य हो सकता है, उससे पूर्व निःशल्य नहीं हो सकता है । -जं. ग. 26-10-72/VII/ रो. ला. मित्तल सम्यक्त्वी सर्वथा निर्भय नहीं होता शंका-क्या सम्यग्दष्टि सर्वथा निर्भय रहता है ? क्या सम्यग्दृष्टि के आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा नहीं होती है ? समाधान-चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर आठवें अपूर्वकरणगुणस्थान तक भयप्रकृति का उदय रहता है अतः इन पांच गुणस्थानों में सम्यग्दृष्टि को सर्वथा निर्भय नहीं कह सकते । नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से भय संज्ञा नहीं रहती है अतः वहाँ पर सर्वथा निर्भय हो जाता है । कहा भी है "अपुव्वकरणस्स चरिम समए मयस्स उदीरणोदय गट्ठो तेण भयसण्णा णस्थि ।" धवल पु. २ पृ. ४३५ "अपूर्वकरणगुणस्थान के अन्तिमसमय में भय की उदीरणा व उदय नष्ट हो जाता है अतः अनिवृत्तिकरणगुणस्थान में भयसंज्ञा नहीं होती है । चौथे, पांचवें, छठे इन तीन गुणस्थानों में सम्यग्दृष्टि के आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा ये चारों संज्ञा होती हैं । सातवेंगुणस्थान से आहारसंज्ञा नहीं रहती और शेष तीनसंज्ञा भी उपचार से रहती हैं। णटुपमाए पढमा, सण्णा णहि तस्थकारणाभावात् । सेसा कम्मस्थितेणुवयारेणस्थि हि कज्जे ॥१३९॥ गो० जी० अर्थ-अप्रमत्तादि गुणस्थानों में आहारसंज्ञा नहीं होती, क्योंकि वहाँ पर उसका कारण असातावेदनीय का तीव्र उदय व उदीरणा नहीं पाई जाती। शेष तीन संज्ञा भी वहां पर उपचार से होती हैं, क्योंकि उनका कारण तत्तत्कों का उदय वहां पर पाया जाता है फिर भी उनका वहाँ पर कार्य नहीं हुआ करता। -जं. ग. 1-1-70/VIII/ रो. ला. मित्तल शंका-मिथ्यादृष्टि के भयप्रकृति का उदय था जब सम्यग्दृष्टि हुआ भयरहित हो गया, ऐसा आगम में कहा है । क्या मिथ्यात्वकर्मोदय से भय होता है ? सम्यग्दृष्टि के क्या भयप्रकृति का उदय नहीं होता? समाधान-चारित्रमोहनीयकर्म के दो भेद हैं । कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय । नोकषायवेदनीय के नव भेद हैं हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, पुरुषवेद और स्त्रीवेद । इन नोकषाय में से आदि की छह नोकषाय, आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के अन्त में उदय से व्युच्छिन्न होती हैं। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६८ में कहा है "अपुवम्हि छच्चेव णोकसाया।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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