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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६२१ रागद्वेष आदि क्षोभ से रहित प्रात्म-परिणाम का नाम ही स्वरूपाचरणचारित्र अथवा यथाख्यातचारित्र है । श्री कुन्दकुन्द तथा अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार में कहा भी है चारित्तं खलु धम्मो-धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्रो। मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥७॥ टीका-स्वरूपे चरणं चारित्रं । स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव वस्तुस्वभावत्वाधर्मः । शुद्ध चैतन्यप्रकाशनमित्यर्थः । तदेव च यथावस्थितात्मगुणत्वात् साम्यम् । साम्यं तु दर्शन चारित्रमोहनीयोदयापावितसमस्त मोहक्षोभाभावादत्यन्तनिविकारो जीवस्य परिणामः ॥७॥ अर्थ-चारित्र वास्तव में धर्म है जो धर्म है वह साम्य है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। साम्य मोहक्षोभरहित आत्म-परिणाम है। टीकार्थ-स्वरूप में रमण करना सो चारित्र है। अपने स्वभाव में प्रवृत्ति करना ऐसा इसका अर्थ है । यही वस्तुस्वभाव होने से धर्म है। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना यह इसका अर्थ है। वही यथावस्थित प्रात्मगुण होने से साम्य है और साम्य दर्शनमोहनीय तथा चारित्र मोहनीय कर्मोदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ अर्थात् राग-द्वेषकल्लोलों के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार आत्म परिणाम है । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दष्टि के अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्म की इन बारह प्रकृतियों का निरन्तर उदय रहता है । उसके क्षणभर के लिए भी रागद्वेष कल्लोलों से रहित मन नहीं हो सकता है, फिर वह आत्म-तत्त्व को कैसे देख सकता है ? असंयतसम्यग्दष्टि की जिनवचनों पर अटूट श्रद्धा होती है और वह जिनवचनों के आधार पर ही साततत्त्वों की तथा आत्मतत्त्व को श्रद्धा करता है। जो ण विजाणवि तच्चं सो जिणवयणे करेवि सद्दहणं । जं जिणवरेहि भणियं ते सव्वमहं समिच्छामि ॥३२४॥ अर्थात~जो तत्त्वों को नहीं भी जानता, किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है कि जिन भगवान ने जो कहा वह मुझको स्वीकार है । वह जीव भी सम्यग्दृष्टि है। जिसको जिनवचन पर श्रद्धा नहीं है और चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र बतलाता है, वह मिथ्यादृष्टि है। -. ग./28-8-69/VII/ बलवंतराव चतुर्थ गुणस्थान में निश्चय सम्यक्त्व पर्याय नहीं होती शंका-चतुर्थगुणस्थान में भी क्या निश्चयसम्यक्त्व होता है ? समाधान-निश्चयसम्यक्त्व का लक्षण निम्न प्रकार है "निश्चयनयेन निश्चयचारित्राविमामावि निश्चयसम्यक्त्वं वीतरागसम्यक्त्वं मण्यते।" अजमेर से प्रकाशित समयसार पृ० १५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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