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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४२३ कब कौनसा परिवर्तन प्रारम्म होता है, यह नहीं कहा जा सकता शंका-यह अज्ञानीजीब अनादि से इस पंचपरिवर्तनरूप संसार में भ्रमण कर रहा है। इनमें कब किसपरिवर्तन का प्रारम्भ और अन्त होता है इसका भी उल्लेख किसी अन्य में है क्या ? समाधान-पंच परिवर्तन में से किसी भी परिवर्तन का काल नियत नहीं है, किन्तु इतना नियत है कि वह काल अनन्त है और हीनाधिकता के कारण वह अनन्तकाल भी अनेक प्रकार का है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि किस जीव का परिवर्तन काल कब प्रारम्भ होगा और कब समाप्त होगा ? -. ग. 31-7-69/V/........ मस्तिष्क एवं मन में अन्तर शंका-मस्तिष्क मनका ही एक अंग समझना चाहिए या स्वतन्त्र अंग है ? समाधान-मस्तिष्क और मन इन दोनों के स्थान भिन्न-भिन्न हैं । अतः मस्तिष्क स्वतन्त्र अंग है । 'हृदय में पाठ पांखुरीवाले कमल समान बन रहा द्रव्यमन भी मनोवर्गणा नामक पुद्गलों से निर्मित है।' ( श्लोकवातिक खंड ६ पृ० १४९ ) किन्तु मस्तिष्क ललाट में होता है । मस्तिष्क का कार्य हिताहित का विचार तथा स्मृति आदि है। मन का कार्य शिक्षा व पालाप को ग्रहण करना है। सिक्खा-किरियुवेदसालावग्गाही मणोवलंबेण । जो जीबो सो सण्णी तग्विवरीदो असण्णी दु ॥६६१॥ (गो० जी० ) जो जीव मन के द्वारा शिक्षा उपदेश आलाप को ग्रहण करता है वह संज्ञी अर्थात् मनसहित जीव है । जो शिक्षा उपदेश आलाप को ग्रहण नहीं कर सकता मनरहित अर्थात् असंज्ञीजीव है। 'संझिनः समनस्काः ।'इस सूत्र द्वारा यह बतलाया है कि जिन जीवों के मन है वे संज्ञी हैं । -जं. ग. 10-12-70/VI/र. ला. जैन शास्त्रों का मूल से [संस्कृत या प्राकृत से] स्वाध्याय ही उत्तम है शंका-शास्त्रों की रचना अधिकतर प्राकृत व संस्कृत भाषा में हुई है। पंडितों द्वारा जिनका हिन्दी अनुवाद हुआ है । क्या हिन्दी अनुवाद मात्र पढ़ने से शास्त्र का यथार्थ व पूर्ण ज्ञान हो सकता है ? समाधान-पार्षग्रन्थों का यथार्थ व पूर्ण ज्ञान करने के लिये संस्कृत व प्राकृत का बोध होना आवश्यक है। विद्वानों ने ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद करके बहुत उपकार किया, क्योंकि जिनको संस्कृत व प्राकृत का ज्ञान नहीं है, वे भी हिन्दी अनुवाद से ग्रन्थों की स्वाध्याय कर सकते हैं। फिर भी अनुवाद तो अनुवाद ही है। किसी ने कहा भी है-'Translation is after all translation. It looses its half charm.' -जं. ग. 2-12-71/VIII/रो. ला. मित्तल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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