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________________ १४१६ ] - [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : आगम का लक्षण: जो केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, प्रायः अतीन्द्रिय पदार्थों को विषय करने वाला है, मचिन्त्य स्वभावी है और युक्ति के विषय से परे है, उसका नाम आगम है (धवल पु०६ पृ० १५१) कौनसा आगम प्रमाण है: जिस पागम का दोष और पावरण से रहित अरहंत परमेष्ठी ने अर्थरूप से व्याख्यान किया है, जिसको निर्मल बद्धिरूप अतिशय से युक्त और निर्दोष गणधरदेव ने धारण किया है, जो चला आ रहा है, जिसका पहले का वाच्यवाचक भाव अभी तक नष्ट नहीं हुआ है और जो दोषावरण से रहित तथा निष्प्रतिपक्ष सत्य स्वभाववाले पुरुष के द्वारा व्याख्यात होने से श्रद्धा के योग्य है; ऐसे आगम की आज भी उपलब्धि होती है। कालसम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान से सहित होने के कारण प्रमाणता को प्राप्त प्राचार्यों द्वारा इसके अर्थ का व्याख्यान किया गया है। इसलिये आधुनिक प्रागम भी प्रमाण है। (धवल पू० ११० १९६-९७) गणधरदेव ने जिनकी ग्रन्थरचना की, ऐसे अंग प्राचार्य परम्परा से नित्य चले आ रहे हैं। परन्तु काल के प्रभाव से उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए पा रहे हैं । अतएव जिन प्राचार्यों ने आगे श्रेष्ठ बुद्धि वाले पुरुषों का अभाव देखा, जो स्वयं अत्यन्त पापभीरु थे, और जिन्होंने गुरु परम्परा से श्र तार्थ ग्रहण किया है या तीर्थ-विच्छेद के भय से उस समय अवशिष्ट रहे हुए अंग सम्बन्धी अर्थ को पोथियों में लिपिबद्ध किया है, अतएव उनमें असूत्रपना नहीं पा सकता है। अतः पागम की प्रमाणता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसका कर्ता प्राचार्य हो और उसको गुरु-परम्परा से श्र तार्थ प्राप्त हना हो। यदि इन दोनों में से एक की भी कमी है तो वह ग्रन्थ पागम या प्रमाणता की कोटि को प्राप्त नहीं हो सकता। अप्रामाणिक ग्रन्थ : जो ग्रन्थ प्राचार्यों द्वारा नहीं रचे गए हैं अथवा उन प्राचार्यों द्वारा रचे गये हैं, जिनको गुरु परम्परा से श्र तार्थ प्राप्त नहीं हुआ है, अथवा पार्ष-परम्परा के विच्छेद हो जाने के पश्चात् रचे गए हैं, वे ग्रन्थ प्रमाणता को कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? वीतरागता और विज्ञानता से पुरुष में प्रमाणता आती है। इसीलिए उन प्राचार्यों को प्रामाणिक माना है जिन्होंने गुरु परम्परा से श्रु तार्थ ग्रहण किया है। श्रीमान् पं० राजमलजी, श्रीमान् पं० टोडरमलजी, श्रीमान् पं० आशाधरजी आदि सम्भव है अपने समय के उच्चकोटि के विद्वान् हों, किन्तु न तो वे प्राचार्य थे और न आर्ष परम्परा से उन्होंने श्रु तार्थ ग्रहण किया था। इसलिए वे प्रमाण पुरुष नहीं थे। अतएव उनके द्वारा रचे गए स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रमाण कोटि को प्राप्त नहीं हो सकते हैं। यदि स्वार्थवश या पक्षपातवश उनके ग्रंथों को प्रमाण मान लिया जावेगा, तो आजकल मुनियों, क्षल्लकों, ब्रह्मचारी तथा पण्डितों द्वारा रचे गए ग्रंथों को क्यों न प्रमाणता प्राप्त होगी, इतना ही नहीं शंखनादी, श्री स्वामी दयानंद प्रादि द्वारा रचित ग्रन्थों को भी प्रमाणता का प्रसंग पा जावेगा, क्योंकि उन्होंने भी जैन प्रागम को पढा था। कहा भी है-वक्ता की प्रमाणता से वचन में प्रमाणता आती है। इस न्याय के अनुसार अप्रमाणभूत पुरुष के द्वारा व्याख्यात किया गया पागम अप्रमाणता को कैसे नहीं प्राप्त होगा। अर्थात् अवश्य प्राप्त होगा (धवला पु०१ पृ० १९६ ) । आर्षपरम्परा के विच्छेद को या अप्रमाण वचन रचना को प्रार्षपना प्राप्त नहीं हो सकता। पंचाध्यायादि ग्रंथ प्राचार्यों द्वारा नहीं रचे गए और न उनके कर्ताओं को गुरुपरम्परा से उपदेश प्राप्त हुआ था, इसी कारण यह ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं है। दूसरे इन ग्रन्थों में एक स्थल पर ही नहीं, किन्तु अनेक स्थलों पर आगम अनुसार कथन नहीं पाया जाता। अपितु धवल प्रादि व नयचक्र आदि आगम ग्रन्थों के विरुद्ध कथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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