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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६१६ अनादि मिथ्याष्टि जीव के प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति में कारण पाँच लब्धियाँ कही गई हैं। क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि, करणलब्धि इन पांच लब्धियों के बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। इन पाँचलब्धियों में से दूसरी विशुद्धलब्धि का स्वरूप इसप्रकार है 'बहुरि मोह का मंद उदय आवने ते मंदकषायरूपभाव होय तहां तत्त्व विचार होय सके, सो विशुद्धलब्धि है।' मोक्षमार्ग प्रकाश पृ० ३८५। इन उपयुक्त आगम प्रमाणों से यह सिद्ध हो गया कि तीव्रराग ( कषाय ) की अवस्था में सम्यक्त्वोत्पत्ति नहीं हो सकती, किन्तु मन्दराग के समय में ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है अतः अन्य कारणों के साथ मन्दराग भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारण है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में मन्दराग सर्वथा अकारण है ऐसा मानना उचित नहीं है, किन्तु कथंचित् कारण है। -जै. सं. 19-12-57/V/ रतनकुमार जैन सम्यग्दर्शन का विषय द्रव्य है या पर्याय ? शंका-सम्यग्दर्शन का विषय द्रव्य है या पर्याय है ? समाधान-"तत्वार्यश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।" अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन सात तत्त्वार्थों में द्रव्य व पर्याय दोनों हैं, मात्र द्रव्य नहीं है। इनमें से आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष अथवा पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ये तत्त्वार्थ न तो मात्र जीव की पर्याय हैं और न मात्र पुद्गल की पर्यायें हैं, किन्तु दोनों के परस्पर संयोग से (बंध से) ये पर्यायें उत्पन्न हुई हैं। यदि जीव पुद्गल का परस्पर बन्ध न हो तो पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष ये पर्यायें ही उत्पन्न न हों। समयसार की टीका में कहा भी है __"यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षावशेन देवदत्तायाः पुत्रोयं केचन वदंति; देवदत्तस्य पुत्रोयमिति केचन वदंति इति दोषो नास्ति । तथा जीवपुगलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धो। पावानरूपेण चेतना जीवसम्बद्धा। शुद्धनिश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणा चेतनाः पौद्गलिकाः । “परमार्थतः पुनरेकांतेन न जीवरूपाः वा पुद्गलरूपाः सुधाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवत् ।" श्री जयसेनाचार्य कृत टीका । "स्वमेकस्य पुण्यपापात्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षानुपपत्तेः तदुभयं च जीवाजीवाविति ।" श्री अमृतचन्द्राचार्य । जिसप्रकार चूना व हल्दी दोनों के मिलने से (परस्पर बंध से) लालरंग की उत्पत्ति होती है, वह लाल रंग न मात्र चूने का परिणमन है, क्योंकि चूना श्वेत होता है और न मात्र हल्दी का परिणमन है, क्योंकि हल्दी पीली होती है । अतः वह लाल वणं, चूने व हल्दी दोनों के परस्पर बन्ध से ही उत्पन्न हुआ है। हाइड्रोजन और आक्सी. जन इन दो गैसों के मिलने से जल की उत्पत्ति होती है। वह जल न मात्र हाइड्रोजन गैसरूप है और न मात्र आक्सीजनरूप है, किंतु दोनों के मिलने से ( परस्पर बन्ध से ) उत्पन्न हुप्रा है। इसी प्रकार पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष में एक ही जीव या अजीव के परिणमन नहीं हैं, किन्तु जीव-अजीव (पुद्गल) दोनों से उत्पन्न होते हैं। "ये केचन वदंत्येकांतेन रागादयो जीवसम्बन्धिनः पुद्गलसम्बन्धिनो वा तदुभयमपि वचन मिथ्या। कस्मादिति चेत्, पूर्वोक्तस्त्रीपुरुषदृष्टांतेन संयोगोद्भवत्वात् ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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