SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४०४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : दयामूलस्तु यो धर्मो महाकल्याणकारणम् । दग्ध-धर्मेषु सोऽन्येषु विद्यते नैव जातुचित् ॥२३॥ जिनेन्द्रविहिते सोऽयं मार्गे परमदुर्लभे । सदा सन्निहिता येन त्रैलोक्याग्रमवाप्यते ॥२४॥ पद्मपुराण पर्व=५ अर्थ-जो धर्म दयामूलक है वही महाकल्यारण (मोक्ष) का कारण है। संसार के अन्य अधमधमों में वह दयामूलक धर्म नहीं पाया जाता। वह दया मूलक धर्म, जिनेन्द्रभगवान के द्वारा प्रणीत परम दुर्लभ मार्ग में सदा विद्यमान रहता है और दयाधर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। . पूयाफलेण तिलोए सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो। दाणफलेण तिलोए सारसुहं भुजदे णियदं ॥१४॥ रयणसार अर्थ-पूजा के फल से देवताओं के इन्द्र द्वारा पूजित त्रिलोक का अधीश अर्थात् अरहंत होता है और दान के फल से त्रिलोक में सारभूत उत्तमसुख अर्थात् मोक्षसुख को भोगता है। दिग्णइ सुपत्तदाणं विसेसदो होइ भोग-सग्गमही। . णिव्वाणसुहं कमसो णिहिट्ठ जिणरिदेहिं ॥१६॥ अर्थ-सुपात्र को दान प्रदान करने से भोगभूमि तथा स्वर्ग के सुखको प्राप्त होकर अनुक्रम से मोक्षसुख पाता है जिनेन्द्र ने ऐसा दान का फल कहा है। पावभूतान्नदानाच्च शक्त्याढ्यास्तर्पयन्ति ते । ते भोगभूमिमासाद्य प्राप्नुवन्ति पर पदम् ॥१०६॥ बानतो सातप्राप्तिश्च स्वर्गमोक्षककारणम् ॥१०८॥ पद्मपुराण पर्व १२३ अर्थ-जो शक्तिसम्पन्न मनुष्य, पात्रों के लिये अन्न देकर सन्तुष्ट करते हैं वे भोगभूमि पाकर परम पद मोक्षपद को प्राप्त होते हैं । दान से सुखकी प्राप्ति होती है और दान स्वर्ग तथा मोक्ष का प्रधान कारण है । अणधर्मोऽअधर्मश्च श्रेयसः महाविस्तार-सङ्गतः । परो निर्ग्रन्थशूराणां कीर्तितोऽत्यन्तदुःसहः ॥८॥१८॥ पद्मपुराण अर्थात्-अणुव्रत और महाव्रत ये दोनों मोक्ष के मार्ग हैं। अणुव्रत परम्परा से मोक्ष का कारण है और महाव्रत साक्षात् मोक्ष का कारण है। 'भव्यानामभिर्व तैरनणुभिः सोध्योऽत्र मोक्षः परं' । पद्मनन्दि ७२६ अर्थात्-भव्यजीवों को अणुव्रत अथवा महाव्रतों के द्वारा केवल मोक्ष ही सिद्ध करने योग्य है। तविपर्ययतो मोक्षहेतवः पंच सूविताः । सामर्थ्यादन नातोस्ति विरोधः सर्वथा गिराम् ॥१॥३॥ श्लोकवातिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy