SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४०२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : मोक्ष का कारण कौनसा रत्नत्रय ? शंका-साक्षात् मोक्ष का कारण क्या तेरहवें गुणस्थान का रत्नत्रय है या चौदहवें गुणस्थान का रत्नत्रय है अथवा १४३ गुणस्थान के अन्तिमसमय का रत्नत्रय साक्षात् मोक्ष का कारण है ? समाधान- इस सम्बन्धी कोई एकांत नहीं है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य और उनके टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने वीतरागता को साक्षात् मोक्ष का कारण कहा है, उनका कहना है कि रागी कर्म से बंधता है और विरागी ( वीतरागी) कर्म से छूटता है । 'रत्तो बंधदि कम्मं मुञ्चति जीवो विरागसंपत्तो।' 'यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बध्नीयात विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः ।' अर्थात्-रागी कर्म बांधता है और वीतरागी कर्मों से मुक्त होता है, यह पागम है । श्री उमास्वामी ने मोक्षशास्त्र में भी कहा है कि 'बन्ध के कारणों के प्रभाव होने और निर्जरा से सबको का प्रात्यंतिकक्षय होना ही मोक्ष है तथा कषाय के अभाव में मात्र ईर्यापथप्रास्रव होता है, जो कि १२ १३वें गुणस्थान में होता है । मोक्षशास्त्र में १२वें गुणस्थानवाले को वीतराग छद्मस्थ कहा है । श्री पूज्यपादस्वामी तथा श्री अकलंकदेव ने १४वें गुणस्थान में साक्षात् मोक्ष का कारण माना है, क्योंकि १४वें गुणस्थान में प्रास्रव का भी निरोध हो जाता है । कहा भी है 'समुच्छिन्नक्रियानिवति' ध्यान में सर्वप्रकार के कर्मबन्ध के कारणरूप प्रास्रव का भी निरोध हो जाने से तथा बाकी के बचे सब कर्मों को नाश करने की शक्ति के उत्पन्न हो जाने से प्रयोगकेवली के संसार के सर्वप्रकार के दुःखजाल के सम्बन्ध का उच्छेद करनेवाला सम्पूर्ण यथाख्यात चारित्र-ज्ञानदर्शनरूप साक्षात् मोक्ष का कारण उत्पन्न होता है। श्री विद्यानन्दआचार्य ने निश्चयनय से अयोगकेवली के अन्तिमसमय के रत्नत्रय को मोक्ष का कारण माना है, किन्तु व्यवहारनय से उससे पूर्व का अर्थात् १३वें आदि गुणस्थान के रत्नत्रय को भी मोक्ष का कारण माना है और साथ में यह भी सूचना दी है कि तत्त्ववेदियों को इसमें कोई विवाद नहीं है। रत्नत्रितयरूपेणायोग केवलिनोंऽतिमे । क्षणे विवर्तते ोतवबाध्यं निश्चितानयात् ॥ व्यवहारनयाश्रित्या स्वेतत्प्रागेव कारणम । मोक्षस्येति विवादेन पर्याप्तं तत्त्ववेदिनाम् ।। इसप्रकार भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से भिन्न-भिन्न कथन है। स्याद्वादियों को इसमें कोई विवाद नहीं है, किन्तु जो एकांतमिथ्याइष्टि हैं वे दुराग्रह के कारण अपने एकांतपक्ष को पुष्ट करते जाते हैं, स्याद्वाद को वे पढ़ना या सुनना भी नहीं चाहते । इस एकांत पक्ष के दुराग्रह के कारण संसार में नाना मिथ्यामतों की उत्पत्ति हुई है, हो रही है और होवेगी। -जें. ग. 20-2-67 /VI/........ क्या प्रार्षग्रन्थ कुशास्त्र हैं ? शंका-क्या दि० जैन आर्षग्रन्थ कुशास्त्र हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy