SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 536
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४०० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : यो वक्तारः सर्वज्ञस्तीर्थकर इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति । तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणापरमाचिन्त्य केवलज्ञानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उद्दिष्ट: । तस्य प्रत्यक्षदर्शित्वात्प्रक्षीणदोषत्वाच्च प्रामाण्यम् । तस्य साक्षाच्छिष्यर्बुद्ध्यतिशद्धियुक्त गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनमङ्गपूर्व लक्षणम् । तत्प्रमाणम् तत्प्रमाण्यात् आरातीयः पुनराचार्यैः कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवकालिकाद्युपनिबद्धम् । तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव ।" स. सि. १।२० अर्थ-वक्ता तीन प्रकार के हैं—सर्वज्ञ तीर्थकर या सामान्य केवली तथा श्र तकेवली और पारातीय । इनमें से परमऋषि सर्वज्ञ उत्कृष्ट और अचिन्त्यकेवलज्ञानरूप विभूतिविशेष से युक्त हैं, इस कारण उन्होंने अर्थरूप से पागम का उपदेश दिया है । ये सर्वज्ञ प्रत्यक्षदर्शी और दोष मुक्त हैं, इसलिये प्रमाण हैं। इनके साक्षात् शिष्य और बुद्धि की अतिशयरूप ऋद्धि से युक्त गणधर-श्र तकेवलियों ने अर्थरूप प्रागम का स्मरण कर अंग और पूर्वग्रन्थों की रचना की। सर्वज्ञदेव की प्रमाणता के कारण ये भी प्रमाण हैं। आरातीय प्राचार्यों ने कालदोष से जिनकी आयु, मति और बल घट गया है ऐसे शिष्यों का उपकार करने के लिए दशवकालिक आदि ग्रन्थ रचे । जिसप्रकार क्षीरसागर का जल घट में भर लिया जाता है। उसीप्रकार ये ग्रन्थ भी अर्थरूप से वे ही हैं, इसलिये प्रमाण हैं। पंचास्तिकाय को प्रथम गाथा में जिनेन्द्रभगवान को नमस्कार करते हुए श्रीकुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं"तिहअणहिदमधुरविसद वक्काणं ।" अर्थात् जिनेन्द्र भगवान की वाणी तीनलोक को हितकर मधुर एवं विशद है। इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य लिखते हैं “समस्तवस्तुयाथात्म्योपदेशित्वात् प्रेक्षावत्प्रतीक्ष्यत्वमाख्यातम् ।" अर्थात्-जिनदेव समस्त वस्तु के यथार्थ स्वरूप के उपदेशक होने से विचारवंत बुद्धिमान पुरुषों के बहुमान के योग्य हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार की प्रथम गाथा में "वोच्छामि समयपाहुड, मिणमो सुयकेवली भणियं।" इन शब्दों द्वारा यह कहा है कि 'केवलीश्र तकेवली के द्वारा उपदिष्ट यह समयसार प्राभृत कहूंगा।" समयसार गाथा ५ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने बतलाया कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य के पैभव का जन्म, सर्वज्ञदेव गणधर प्रादि तथा पूर्वाचार्य के उपदेश से हआ था। ध. पु. १ पृ० ३६८ पर श्री वीरसेनाचार्य ने "तस्यज्ञानकार्यत्वात्" इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि दिव्यध्वनि (जिन-उपदेश) ज्ञान का कार्य है । इन सब महानाचार्यों ने उपदेश को जड़ की क्रिया नहीं बतलाया है, किन्तु सर्वज्ञदेव को उपदेशदाता बतलाया है अथवा केवलज्ञान का कार्य बतलाया है। शास्त्रिपरिषद् के प्रस्ताव का उत्तर देते हुए जनवरी १९६६ के हिन्दी आत्मधर्म पृ० ५६५ उत्तर पृ० २९ पर सोनगढ के नेताओं ने लिखा है-'श्री कुन्दकन्दाचार्यदेव सर्गज्ञभगवान की साक्षी देकर कहते हैं।" यहाँ सोनगढ वालों ने उपदेश देना श्री कुन्दकुन्दाचार्य की क्रिया स्वीकार की है। फिर उनका यह लिखना "उपदेश तो जड की क्रिया है । प्रात्मा उसे कर नहीं सकता।" स्व वचन-बाधित है। सोनगढवालों ने उत्तर में शास्त्राधार नं०१ में मात्र समयसार गाथा नं.८६,८७, ३२१, ३२२, ३२३ का उल्लेख किया है, किन्तु मूल गाथा या उनका अर्थ उनकी टीका उद्धृत नहीं की है । गाथा ८७ में तो मिथ्यात्व, अज्ञान आदि जीव, अजीव के भेद से दो प्रकार के बतलाये हैं जिसका इस प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy