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________________ १३९६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : क्या तीर्थकर की वाणी से किसी को लाम नहीं होता? शंका-क्या तीर्थकर की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता? समाधान-कार्य-कारण सिद्धान्त की भूल के कारण सोनगढ़ के नेता 'तीर्थकर की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता', ऐसा मानते हैं । उनकी यह मान्यता प्रार्षग्रन्थ विरुद्ध है। इसीलिये मई १९६५ में शास्त्रिपरिषद् के अधिवेशन में २१ बातों को लेकर सोनगढसाहित्य के विरोध में प्रस्ताव पास हया था। जिनवाणी से भव्यजीवों को लाभ होता है । इस सम्बन्ध में यहाँ पर कुछ आर्षप्रमाण दिये जाते हैं। पंचास्तिकाय प्रथम गाथा में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं' इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि जिनेन्द्रदेव की वाणी तीन लोक का हित करनेवाली है तथा मधुर एवं विशद है। इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य लिखते हैं "त्रिभुवनमूधिोमध्यलोकवर्तीसमस्तएव जीवलोकस्तस्मै निर्व्याबाधविशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भोपायाभिधायिस्वाद्धितकरम् । ____ अर्थ-जिनेन्द्रवाणी अर्थात् दिव्यध्वनि लोकवर्ती समस्त जीवसमूह को निर्बाध विशुद्ध प्रात्मतत्त्व की उपलब्धि का उपाय कहने वाली है, इसलिये हितकर है। इसी गाथा की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने निम्नलिखित गाथा उद्धृत की है अभिमतफलसिद्ध रभ्युपायः सुबोधः । स च भवति शुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् ।। अर्थात-इष्ट फल ( मोक्ष ) की सिद्धि का उपाय सम्यग्ज्ञान है। वह सम्यग्ज्ञान यथार्थ पागम से होता है। उस आगम की उत्पत्ति प्राप्त (जिनवारणी) से होती है । जिनवाणी से अज्ञान का नाश होकर सभ्य ज्ञान की उत्पत्ति होती है तथा असंख्यातगुणश्रेणीरूप कर्मों की निर्जरा होती है। जिय-मोहिंधण जलणो अण्णाणतमंधयार-दिणयरओ। कम्म-मल-कलुस-पुसओ जिणवयणमिवोवही सुहयो ॥५०॥ [ध. १ पृ. ५९ ] अर्थ-जिनागम जीवके मोहरूपी ईंधन को भस्म करने के लिये अग्नि के समान है, अज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने के लिये सूर्य के समान है, कर्ममल ( द्रव्यकर्म ) और कर्म कलुष ( भावकर्म ) को मार्जन करनेवाला समुद्र के समान है और परम सुभग है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य पंचास्तिकाय की दूसरी गाथा में जिनवाणी से निर्वाण बतलाते हैं । समणमुहुग्गदमट्ठ चदुग्गदिणिवारणं स णिव्वाणं।' अर्थात्-जिनवाणी पदार्थों का कथन करनेवाली है, चारगति का निवारण करनेवाली है और निर्वाण को देने वाली है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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