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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६१७ समाधान-श्री समन्तभद्र स्वामी महाचार्य हो गये हैं। उन्होंने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को धर्म बतलाया है और वह धर्म प्राणियों को संसार के कष्टों से निकालकर उत्तम सुख में धरता है। इस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म का कथन करते हुए सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्न प्रकार कहा है श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपो भृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥४॥ अर्थ-सच्चे देव-शास्त्र-गुरुओं का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, किन्तु वह श्रद्धान तीन मूढतारहित भाठ अङ्गसहित और पाठ मदरहित होना चाहिए । सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनन्दि आचार्य सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्न प्रकार कहते हैं अत्तागमतच्चाणं जं सदद्वहणं सुणिम्मलं होइ। संकाइदोसरहियं त सम्मत्तं मुरणेयन्वं ॥६॥ अर्थ-सत्यार्थ देव, आगम और तत्वों का शंकादि (पच्चीस) दोषरहित जो अतिनिर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना चाहिए। श्री कुन्दकुन्दाचार्य भी मोक्षप्राभृत में सम्यग्दर्शन का निम्न लक्षण कहते हैं हिसारहिए धम्मे अट्ठारह दोसज्जिए देवे । निग्गंथे पावयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥१०॥ अर्थ-हिंसारहित धर्म, अठारह दोषरहित देव, पदार्थ तथा निर्ग्रन्थ गुरु का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। नियमसार में भी श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्न प्रकार कहा है अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो, हवेइ सम्मत्तं । ववगयअसेस दोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो ॥५॥ आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। जिसके अशेषदोष दूर हुए हैं ऐसा जो सकल गुणमय पुरुष वह आप्त है। श्री सोमदेवाचार्य ने उपासकाध्ययन में सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्न प्रकार कहा है आप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं कारणद्वयात् । मढाद्यपोढमष्टाङ्ग सम्यक्त्वं प्रशमादिभाक् ॥४८॥ पृ. १३ श्री पं० कैलाशचन्दजी सम्पादक जैनसन्देश ने इसकी टीका में निम्न प्रकार लिखा है "अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलने पर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थों का तीन मूढतारहित आठ अङ्गसहित जो श्रद्धान होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग आदि गुणवाला होता है। सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्त्व अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलने पर प्रकट होता है। इसका अन्तरंग कारण तो दर्शनमोहनीयकर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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