SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३८५ टीका-'स्वलक्षणं हि लोकस्य षड्द्रव्यसमवायात्मकत्वं, अलोकस्य पुनः केवलाकाशात्मकत्वम् ।' गाथार्थ आकाश में जो भाग पुद्गल और जीव से संयुक्त है तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं काल से समृद्ध है वह क्षेत्र सर्वकाल में लोक है । टीकार्थ-लोक का स्वलक्षण षड्द्रव्य-समवायात्मकत्व है अर्थात् छहद्रव्यों का समुदायरूप है और प्रलोक केवल आकाशात्मक है। धम्माधम्मा कालो पुग्गलजीवा य सन्ति जावदिये। आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्ति ॥२०॥ ( वृहद् द्रव्यसंग्रह) टीका--'लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्न स लोक इति।' गाथार्थ-धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव ये पांचो द्रव्य जितने आकाश में हैं वह 'लोकाकाश' है और उस लोकाकाश के बाहर 'अलोकाकाश' है। टीकार्थ-जहां जीवादि पदार्थ लोक्यन्ते अर्थात देखने में पाते हैं वह लोक है। अथवा 'लोक' का रूढ़िबल से अर्थ करने पर छहद्रव्यों के समुदाय को लोक कहा है ऐसा अर्थ हो जाता है। कहा भी है ‘षड्द्रव्यसमूहो लोकः इत्यार्षस्य विरोध इति, तन्न किं कारणम् ? रूढ़ौ क्रियाया व्युत्पत्तिमात्रनिमित्तत्वात् ।' ( रा० वा० ५॥१२ ) –णे. ग. 2-11-72/VII/रो ला. मित्तल लोकपाल का अर्थ परमेष्ठी शंका–सन्मतिसंदेश नवम्बर १९६६ में 'घडिद पंच लोगपाल' यह वाक्य उद्धृत किया गया है। इसमें 'पंच लोगपाल' का क्या अर्थ है ? क्या क्षेत्रपाल अर्थ करना ठीक है ? समाधान-यह वाक्य ध० पु० १३ पृ० २०२ का है । पंक्ति ४ में यह लिखा है "सिलासु पुधभूदासु उक्कच्छिण्णासु वा कदअरहतादिपंचलोगपालपडिमाओ सेलकम्माणि णाम जिणहरादीणं चंदसालादिसु अभेदेण घडिदपडिमाओ गिहकम्माणि णाम । कुड्डेसु अभेदेण घडिदपंचलोगपालपडिमाओ भित्तिकम्माणिणाम ।' अर्थ-अलग रखी हुई शिलानों में या उखाड़कर अलग की गई शिलाओं में जो अरहन्त आदि पाँच लोकपालों ( पंच परमेष्ठियों ) की प्रतिमायें बनाई जाती हैं वे शैलकर्म हैं। जिन मन्दिर आदि की चन्द्रशाला आदिकों में अभिन्नरूप से घड़ी गई प्रतिमायें गृहकर्म हैं। भीतों में उनसे अभिन्न बनाई गई पांच लोकपालों (पंच परमेष्ठियों) की प्रतिमायें भित्ति कर्म हैं। यहाँ पर 'पंचलोगपाल' का प्रयोजन पंचपरमेष्ठी से है। -जं. ग. 5-10-67 /VII/ र. ला. जैन, मेरठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy