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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] 'तनोत्कृष्टं पञ्चधनुः शतानि पञ्चविंशत्युत्तराणि । जघन्यम् अर्द्ध चतुर्थारत्नयः देशोनाः । ५२५ धनुष के २१०० हाथ होते हैं, क्योंकि ४ हाथ का एक धनुष होता है । २१०० हाथ में से ३३ हाथ कम करने पर २०९६३ हाथ होते हैं जिनका मध्य १०४८४ हाथ होते हैं अथवा २६२ धनुष से कुछ अधिक होता है । १०४८४ को अवगाहना वाले सिद्ध यवमध्य सिद्ध हैं । - ज ग 27-3-69 / IX / क्षु. श्रीलसागर [ १३८३ योग-संक्रान्ति शंका--सर्वार्थसिद्धि पृ० ४५५ पंक्ति २७ पर योगसंक्रान्ति का लक्षण बतलाते हुए कहा है- 'काययोग को छोड़कर दूसरे योग को स्वीकार करता है और दूसरे योग को छोड़कर काययोग को स्वीकार करता है।' इससे क्या यह भी फलित होता है कि मन, वचन, काय तीनों का पलटन हो सकता है ? अर्थात् मन हो फिर वचन हो फिर काय हो फिर मन या वचन हो, आदि आदि ? समाधान-संक्रान्ति का अर्थ पलटन है । मन, वचन, काय इन तीनों योगों में से कोई एकयोग छूटकर अन्य कोई ऐसा योग हो जावे वह भी पलटकर अन्य योग हो जावे । इसप्रकार पलटन को योगसंक्रान्ति कहते हैं । शंकाकार ने योग-संक्रान्ति का अर्थ ठीक समझा है । -ज. ग. 3-6-65/XV/ र. ला जैन, मेठ मोह और राग में अन्तर शंका- 'मोह' और 'राग' इन शब्दों को कैसे समझा जा सकता है ? इन दोनों में क्या अन्तर है ? समाधान - सम्यग्दर्शन व चारित्र का घात करे वह मोहनीयकर्म है कहा भी है 'मोहयति मुह्यतेऽनेनेति वा मोहनीयम् ।' स० सि० ८४ जो मोहित करता है वह मोहनीयकर्म है अथवा जिसके द्वारा जीव मोहित हो वह मोहनीयकर्म है । 'जं तं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं, दंसणमोहणीयं चारित्रमोहणीयं चेव ॥२०॥ ध. पु. ६ पृ. ६० वह मोहनीय कर्म दोप्रकार का है -दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय | राग तथा द्वेष ये दोनों चारित्रमोहनीयरूप हैं, क्योंकि क्रोध व मान द्वेषरूप हैं माया व लोभ रागरूप हैं । 'इसप्रकार यद्यपि मोह शब्द से राग-द्वेष का भी ग्रहण हो जाता है तथापि समयसार आदि ग्रन्थों में जहाँ पर मोह राग-द्वेष शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ पर मोहशब्द से दर्शन - मोह और रागादि शब्द से चारित्रमोह इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये। 'मोहशब्देन दर्शनमोहो रागादिशब्देन चारित्रमोह इति सर्वत्र ज्ञातव्यं ।' इसलिये समयसार गाथा ३६ की टीका में कहा है 'एवमेव मोह पदपरिवर्त्तनेन रागद्वेष-क्रोध-मान- माया-लोभ-कर्मनो कर्म-मनोवचनकाय श्रोत्रचक्षु प्रणिरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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