SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३७३ इसका अर्थ 'जो पर्यायों को प्राप्त करता है' ऐसा होता है, क्योंकि 'पर्यायान्' द्वितीया का बहुवचन है । 'ऋ' धातु से 'इयति' बना है जो लट्लकार में प्रथमपुरुष का एकवचन है। 'ऋ' धातु का अर्थ 'प्राप्त करना है। अतः 'इयति पर्यायान्' का अर्थ 'पर्यायों को प्राप्त करता है' ऐसा होता है। -ज'. ग. 25-3-76/VII/ र. ला. जैन "जिणुद्दिट्ट" का अर्थ शंका-हाल के किसी एक लेख में रयणसार गाथा १२५ के 'जिणुद्दिद्रु' का अर्थ 'जिनेन्द्र के द्वारा देखा गया है' ऐसा किया गया है । क्या यह अर्थ ठीक है ? समाधान-दिह्र' शब्द का अर्थ 'दर्शन' व 'कथन' दोनों होते हैं किन्तु "जिणुद्दि8' में 'उद्दिट्ठ' शब्द का अर्थ 'कथितम्' होता है।' जिनेन्द्र भगवान ने किसप्रकार देखा है यह तो छद्मस्थ के द्वारा जाना या कहा नहीं जा सकता है उसको तो केवलज्ञानी ही जानते हैं। जैसे केवली ने काल के सबसे छोटे अंश 'समय' को निरंश देखा है या एकसमय में १४ राजू गमन की अपेक्षा सांश देखा है अथवा परमाणु को सावयव देखा है या निरवयव देखा है। 'नय' श्रु तज्ञान का भेद है । [स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २६३ । ] जिनेन्द्र ने वस्तु को भिन्न-भिन्ननयों के द्वारा देखा है या प्रमाण के द्वारा देखा है या प्रमाण व नय दोनों के द्वारा देखा है। छद्मस्थ अपने ज्ञान के द्वारा जिनेन्द्र के ज्ञान को नहीं देख सकता। इसीलिये किसी भी आचार्य ने यह नहीं कहा कि 'मैं वह कहूंगा जो जिनेन्द्र ने देखा है'; किन्तु आचार्यों ने तो यह लिखा है कि 'मैं वह कहूंगा जो जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।' श्री कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं समयसार की प्रथम गाथा में कहते हैं-'वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं ।' अर्थात् 'अहो ! केवली श्र तकेवली के द्वारा कथित वह समयसारप्राभृत कहूँगा।' 'एकद्रव्य दूसरेद्रव्य का कर्ता नहीं है ।' जिनका ऐसा एकान्त सिद्धान्त है उनको तो यह इष्ट है कि केवली या श्र तकेवली ने शब्दरूप कुछ भी नहीं कहा । क्योंकि केवली या श्रु तकेवली चेतनरूप होने से परद्रव्यरूप पुद्गलमयी शब्दों के कर्ता नहीं हो सकते । इसलिये जिनेन्द्र ने ऐसा कहा है इसको प्रमाण न मानकर 'जिनेन्द्र ने ऐसा देखा है' इसीको प्रमाण मानते हैं और इस आधार पर जिनेन्द्र कथित 'अनेकान्त', 'स्याद्वाद' तथा 'सब सप्रतिपक्ष है' इन सिद्धान्तों का खण्डनकर 'एकान्त नियतिवादरूप मिथ्यात्व' का 'क्रमबद्धपर्याय' के नाम रे प्र० सा० गाथा २३ में भी 'उद्दिठं' शब्द का प्रयोग हुअा है और श्री जयसेनाचार्य ने 'उहिटठं' शब्द का अर्थ 'कथित' किया है। अतः रयणसार गाथा १२५ में उद्दिठं का अर्थ 'देखना' न होकर कथि यस्थ तो वही जान सकता है और उसी की श्रद्धा कर सकता है जो श्री जिनेन्द्र ने कहा है। श्री जिनेन्द्र ने जितना देखा है उस सबको श्री गणधर भी नहीं जान सकते हैं। . व्याप्य-व्यापकरूप से एकद्रव्य की पर्याय दूसरेद्रव्य की पर्याय की कर्ता नहीं हो सकती, किन्तु निमित्तनैमित्तिकरूप लें तो एकद्रव्य की पर्याय दूसरेद्रव्य की पर्याय की कर्ता होती है। यदि ऐसा न माना जावे तो दिव्यध्वनि या द्वादशाङ्ग या समयसारादि ग्रन्थों को अप्रमाणता का प्रसङ्ग आ जायगा। जैसे व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध से उपादानकर्ता होता है वैसे ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से निमित्तकर्ता भी होता है। निमित्तकर्ता १. ऐसा ही अर्थ, अर्थात् जिणुहिदों-जिनकथितम्: डॉ देवेन्द्रकुमारणी शास्त्री नीमच ने भी रयणसार के अनुवाद में गाथा १०६ पृष्ठ १५१ में किया है। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy