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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३४७ यदि जिससमय जीव और पुद्गल गमन करते हैं, केवल उसी समय धर्मद्रव्य में गतिहेतुत्व का उपचार किया जाता है, तो धर्मद्रव्य का लक्षरण 'गतिहेतुत्व' नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि त्रैकालिक असाधारणगुण को लक्षरण कहते हैं । अन्यथा श्रतिव्याप्ति - श्रव्याप्तिदोष श्रा जायगा । इसीप्रकार जीवादि को अवगाहन देने के समय ही आकाश में श्रवगाहन हेतुत्व कहा जाय तो अलोकाकाश के प्रभाव का प्रसंग श्रा जायगा, क्योंकि श्रलोकाकाश तो जीवादि को अवगाहन नहीं देता और अवगाहन न देने के कारण अलोकाकाश में अवगाहनहेतुत्व भी नहीं कहा जा सकेगा और अवगाहन हेतुत्व लक्षण के प्रभाव में अलोकाकाश लक्ष्य के प्रभाव का भी प्रसंग आ जायगा । श्रतः विशिष्टपदार्थ का हेतुत्व विद्यमान है। कार्य होने पर ही कारण का उपचार होता है, ऐसी बात नहीं है । अतः प्रथम निश्चय फिर व्यवहार; यह सिद्ध नहीं होता है । प्रतिशंका - जहाँ कारण होते हुए भी कार्य नहीं होता वहाँ कारणपने ने क्या किया ? जैसे किसी को तत्त्वोपदेश सुनने पर भी सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है । समाधान-कार्य को उत्पन्न न करने पर भी कारणत्वशक्ति का प्रभाव सिद्ध नहीं होता है। श्री वीरसेन स्वामी ने इस विषय को बहुत स्पष्ट किया है 'मंगलं काऊण पारद्ध कज्जाणं कह पि विग्घुवलंभादो तमकाउण पारद्वकज्जाणं पि कत्थ वि विग्धाभावदंसणादो जिणिदणमोक्कारो ण विग्धविणासओत्ति ? ण एस दोसो कयाकयभेसयाणं वाहीणमविणासविणासदंसणेणावयवियहिचा रस्स वि मारिचादि-गुणस्स भेसयत्तुवलंभादो । ओसहाणमो सहत्तं ण विणस्सदि, असझवाहिवदिरित्तसज्झवाहिविसए चेव तेसि वावारब्भुवगमादोत्ति चे जदि एवं तो जिणिदणमोक्कारो वि विग्धविणासओ, असज्झविग्धफलकम्ममुज्झिण सज्झविविग्धफलकम्मविणासे वावारदंसणादो । ण च ओसहेण समाणो जिंणदणमोक्कारो, णाणझाणसहायस्त संतस्स णिग्विग्यग्गिस्स अर्दाज्झधणाण व असज्झविग्धफलकम्माणमभावादो ।' शंका- मंगल करके भी प्रारम्भ किये गये कार्यों में कहीं पर विघ्न पाये जाने से, और उसे न करके भी प्रारम्भ किये गये कार्यों के कहीं पर विघ्नों का अभाव देखे जाने से जिनेन्द्र नमस्कार विघ्नविनाशक नहीं है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिन व्याधियों की प्रौषधि की गई है उनका अविनाश और जिनकी औषधि नहीं की गई है उनका विनाश देखे जाने से व्यभिचार ज्ञात होने पर भी मरीच अर्थात् कालीमिर्च श्रौषधिद्रव्यों में प्रौषधित्वगुण पाया जाता है । यदि कहा जाय कि औषधियों का श्रौषधित्व [ उनके सर्वत्र अचूक न होने पर भी ] इसकारण नष्ट नहीं होता, क्योंकि, असाध्यव्याधियों को छोड़करके केवल साध्यव्याधियों के विषय में ही उनका व्यापार माना गया है, तो जिनेन्द्र - नमस्कार भी उसीप्रकार विघ्नविनाशक माना जा सकता है, क्योंकि, उसका भी व्यापार असाध्यविघ्नों के कारणभूत कर्मों को छोड़कर साध्यविघ्नों के कारणभूत कर्मों के विनाश में देखा जाता है। दूसरी बात यह है कि सर्वथा प्रौषधि के समान जिनेन्द्रनमस्कार नहीं है, क्योंकि जिस - प्रकार निर्विघ्न अग्नि के होते हुए न जल सकने वाले इन्धनों का प्रभाव रहता है उसीप्रकार उक्त नमस्कार के ज्ञान व ध्यान की सहायता युक्त होने पर असाध्य विघ्नोत्पादक कर्मों का भी प्रभाव होता है । ष. खं. पु. ९ पृ. ५ एक कार्य के लिये अनेक कारण होते हैं जैसे रोटी बनाने में आटा, जल, अग्नि आदि अनेक कारण होते हैं । यदि उनमें से किसी एक कारण अर्थात् प्राटा, जल या अग्नि का प्रभाव हो तो कार्य अर्थात् रोटी नहीं बन सकती । इसीप्रकार सम्यक्त्वोत्पत्ति में तत्त्वोपदेश के अतिरिक्त ज्ञानावरणकर्म का विशेष क्षयोपशम, मिथ्यात्व का मंदोदय परिणामों में विशुद्धता, तथा तत्वाभ्यासरूप पुरुषार्थ की भी श्रावश्यकता होती । इन कारणों में से किसी भी एक कारण के अभाव में मात्र तत्त्वोपदेश सुनने से सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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