SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३४५ । क्षयोपशम या क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता कारण यह है कि क्षायिकसम्यक्त्व तो क्षयोपशमसम्यक्त्व के पश्चात् होता है और क्षयोपशमसम्यक्त्व उसी जीव के होता है, जिसके सम्यक्त्व प्राप्ति के द्वारा मिथ्यात्व के तीन टुकड़े (सम्यक्त्व, मिश्र प्रकृति और मिथ्यात्वप्रकृतिरूप ) हो गये हों, प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व पाँच लब्धियाँ होती हैं । उनमें तीसरी 'देशनालब्धि' है । देशनालब्धि का अर्थ है तत्त्वोपदेश की प्राप्ति । ये पाँच लब्धियाँ मिथ्यात्वगुणस्थान में होती हैं, अनिवृत्तिकरण के अनन्तर समय में मिथ्यात्वकर्म के उदयाभाव से और मिथ्यात्व व चार अनन्तानुबन्धीकषाय के उपशम से प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । देशनालब्धि की प्राप्ति व्यवहार है, क्योंकि कारण है और प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति निश्चय है । देशनालब्धि से पूर्व अनादिमिथ्यादृष्टि को यह भी ज्ञान नहीं होता कि जीव ( आत्मा ) भी कोई पदार्थ है । आत्मा का नाम तक सुने बिना उसको जानने की रुचि कैसे हो सकती है । आत्मासम्बन्धी उपदेश बिना 'आत्मा कोई वस्तु है' ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता । श्रतः प्रथम देशनालब्धि (व्यवहार) पश्चात् उपशमसम्यक्त्व ( निश्चय ) होता है । देखो - ष. ख. पु. ६, पृ. २०४ । प्रतिशंका- यह तो सिद्धान्त ग्रन्थों की अपेक्षा से कहा है, परन्तु आध्यात्मिक ग्रन्थों में तो ऐसा नहीं है । समाधान - आध्यात्मिकग्रन्थों में भी यही कहा गया है कि प्रथम व्यवहार पश्चात् निश्चय होता है । श्री समयसार गाया ३८ की टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने इसप्रकार लिखा है- 'यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यन्तमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रतिबोध्यमानः कथंचनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्तविस्मृतचामीकरावलोकन्यायेन परमेश्वरमात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्यं च सम्यगेकात्मारामो भूतः स खल्वहमात्मात्म प्रत्यक्षं प्रत्यक्षं चिन्मात्रंज्योतिः ' ........। अर्थ - जो प्रनादि-मोहरूप अज्ञान से उन्मत्तता के कारण अत्यन्त प्रतिबुद्ध था और विरक्तगुरु से निरंतर समझाये जाने पर जो किसीप्रकार से समझकर जैसे कोई मुट्ठी में रखे हुए सोने को भूल गया हो और सोने को देखे इस न्याय से आत्मा को जानकर उसका श्रद्धान और प्राचरण करके जो सम्यक्प्रकार से एक श्रात्माराम हुआ वह 'मैं' ऐसा अनुभव करता हूँ कि 'मैं अनुभव - प्रत्यक्ष चेतनमात्र ज्योति हूँ । यहाँ पर प्रथम गुरुउपदेश आदि अर्थात् व्यवहार पश्चात् आत्मश्रद्धान अर्थात् निश्चय कहा है । इसीप्रकार गाथा नं० ३५ की टीका में कहा है जैसे कोई पुरुष धोबी के घर से भ्रमवश दूसरे का वस्त्र लाकर उसे अपना समझ प्रोढ़कर सोते हुए स्वयं प्रज्ञानी हो रहा है, किन्तु जब दूसरा व्यक्ति कहता है- 'मंक्षु प्रतिबुध्य स्वापर्य परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्न : सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति ज्ञात्वा ज्ञानो सन्मु चति तच्चचिवरमचिरात् ' तु शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदले में आा गया है, यह मेरा है सो मुझे दे दे । तब बारम्बार कहे गये इस वाक्य को सुनता हुआ वह सर्वचिह्नों से भली-भाँति परीक्षा करके अवश्य ही यह वस्त्र दूसरे का ही है, ऐसा जानकर ज्ञानी होता हुआ उस वस्त्र को शीघ्र ही त्याग देता है । इसीप्रकार ग्रात्मा भी भ्रमवश परद्रव्य के भावों को ग्रहरण करके उन्हें अपना जानकर अपने में ही एक रूपकर सो रहा है और स्वयं अज्ञानी हो रहा है । जब श्रीगुरु कहते हैं'मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति ज्ञात्वाज्ञानी सन् मुचति सर्वापरभावानचिरात्' तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तव में एक ही है । तब बारम्बार कहे गये इस श्रागम के वाक्य को सुनता हुआ वह ज्ञानी समस्त चिह्नों से भली-भाँति परीक्षा करके अवश्य ही ये परभाव हैं, यह जानकर ज्ञानी होता हुआ सर्व परभावों को तत्काल छोड़ देता है । यहाँ पर भी प्रथम गुरु का उपदेश आदि अर्थात् व्यवहार, पश्चात् ज्ञानी हुआ अर्थात् निश्चय हुआ । श्री समयसार की गाथा नं० १२ में तो इस विषय को स्पष्ट ही कर दिया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy