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________________ १३४० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : व्यवहारनिश्चय नय की उपयोगिता शंका-शुद्ध निश्चयनय किस अवस्था में प्रयोजनवान है और व्यवहारनय किस अवस्था में प्रयोजनवान है? समाधान-इस सम्बन्ध में श्री समयसारजी में गाथा सं० १२ इसप्रकार है सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहि । ववहारदेसिवा पुण जे दु अपरमेटिदा भावे ॥ अर्थ-जो ( अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान ) उत्कृष्ट भाव का अनुभव करने वाले हैं उनको तो शुद्धनय-जो शुद्ध का उपदेश करनेवाला है, जानने योग्य है । जो पुरुष (प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्धस्वर्ण के समान ) अनुत्कृष्टभाव में स्थित हैं, वे व्यवहार का उपदेश करने योग्य हैं। जिनके तीन मकार ( मद्य, मांस, मधु ) पाँच उदम्बरफल इन पाठ का त्याग नहीं है अर्थात् जो मधु प्रादि का तथा सूखे हुए पाँच उदम्बर फलों का औषधि आदि में प्रयोग करते हैं वे जिनधर्म के उपदेश देने वाले तो क्या, उपदेश सुनने के भी पात्र नहीं हैं । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में इसप्रकार कहा है अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्त्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥७४॥ अर्थ-अनिष्ट, दुस्तर और पापों के स्थान इन आठों का त्याग करके निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिनधर्म के उपदेश के पात्र होते हैं । --जं. सं. 22-11-56/VI/ दे. च. १. भेद निश्चय का विषय नहीं है २. कोई भी नय अथवा नय का विषय असमीचीन नहीं होता शंका-'शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में भेद नहीं है।' क्या इसका यह अभिप्राय है कि पदार्थ में ही भेद नहीं है ? आगम में जो भेद का कथन है क्या वह अवास्तविक, झूठ, काल्पनिक है ? यदि वस्तु सर्वथा अभेव अखंडरूप है तो क्या ऐसी वस्तु सतरूप हो सकती है ? समाधान- 'शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि में भेद नहीं है' इसका यह अभिप्राय है कि 'भेद' शुद्ध निश्चयनय का विषय नहीं है, किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वस्तु में भेद ही नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है। __ अनेकान्त में अनेक का अर्थ एक से अधिक और 'अन्त' का अर्थ 'धर्म' है, अतः प्रत्येक वस्तु में अनेक अर्थात एक से अधिक धर्म होते हैं। अथवा एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों को अनेकान्त कहते हैं । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार टीका के स्याद्वादाधिकार में कहा भी है-- 'एकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकातः ।' अर्थ-एक वस्तु में वस्तुत्व की उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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