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________________ १३३८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : के पान-भोजन से सुथिर हो ऐसे आलसी हो रहे हैं, अथवा अपने उत्कृष्टदेह के बल से जड़ हो रहे हैं अथवा भयानक मनकी भ्रष्टता से मोहित-विक्षिप्त हो गये हैं या चैतन्यभाव से रहित वनस्पति से हो रहे हैं। तथा मुनि अवस्था में करने योग्य कर्मचेतना ( षडावश्यक ) पुण्यबंध के भय से,अवलम्बन नहीं करतं और परम निःकर्मदशारूप ज्ञानचेतना ( वीतरागनिविकल्पसमाधि अवस्था ) को अंगीकार करी नाहीं, इसकारण अतिशय चंचलभावों के धारी हैं और प्रगट-अप्रगटरूप प्रमाद के प्राधीन हो रहे हैं। 'वे निश्चयावलम्बी महा अशुद्धोपयोग से कर्मफलचेतना से प्रधान होते हुए वनस्पति के समान जड़ हैं और केवल पाप ही के बाँधने वाले हैं।' पंचास्तिकाय पृ० २५०-२५१ रायचन्द्र ग्रन्थमाला मोक्षमार्ग दो नय आधीन है दो नयरूप है अनेकान्तात्मक होने से जिसप्रकार वस्तु की सिद्धि निश्चय-व्यवहारनय के अविरोध द्वारा होती है उसी प्रकार मोक्षरूपी इष्ट सिद्धि भी निश्चय-व्यवहार के विरोध द्वारा होती है। श्री पंचास्तिकायशास्त्र का तात्पर्य लिखते हुए श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं-'इस यथार्थ पारमेश्वरशास्त्र का परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है । सो इस वीतरागपने का व्यवहार-निश्चय के अविरोध द्वारा ही अनुसरण किया जाय तो इष्टसिद्धि होती है, अन्यथा नहीं।' पंचास्तिकाय गाथा १९२ टीका . रायचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित समयसार पृ० २७ पर भी लिखा है-साक्षात् शुद्धनय (निश्चयनय ) का विषय जो शुद्ध प्रात्मा उसकी प्राप्ति जब तक न हो तब तक व्यवहार प्रयोजनवान है। ऐसा स्याद्वादमत में श्री गुरु का उपदेश है।' इसी विषय का निम्न कलश है---- उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यापदांके, जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वांतमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्च, रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥४॥ अर्थ-निश्चय-व्यवहाररूप जो दो नय उनके विषय के भेद से आपस में विरोध है । उस विरोध को दूर करनेवाला स्यात्पद कर चिह्नित जो जिनभगवान का वचन उसमें जो पुरुष रमते हैं—प्रचुर प्रीतिसहित अभ्यास करते हैं वे पुरुष ही मिथ्यात्वकर्म के उदय का वमनकर इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्धमात्मा का शीघ्र ही अवलोकन करते हैं। यह समयसाररूप शुद्धात्मा नवीन नहीं उत्पन्न हुआ है—पहले कर्म से आच्छादित था वह प्रगट व्यक्तरूप हो गया । सर्वथा एकान्तरूप कुनय की पक्षकर खंडित नहीं होता-निर्बाध है । मोक्षमार्ग निश्चय व व्यवहार से दो स्वरूप है । तत्त्वानुशासन में भी कहा है १. 'येऽa केवल निश्चयावलम्बिनः सकलक्रियाकर्मकाण्डाहम्बरविरक्तबुवयोऽर्धमीलितविलोपनपुटा: किमपि स्वबुद्ध्यावलोक्यावलोक्य यथा सुखामास्ते; ते खल्ववीरितभिन्नसाध्यसाधनभाव अभिन्नसाध्यसाधनाभावमलभमाना अन्तराल एव प्रमादकादम्बरीमदभरालसचंतसो भत्ता इय, मर्छिता इय सषप्ता इय, प्रभूतघतसितोपलपायसासादित साहित्या इव, समुल्यणबलसनितजाड्या इव, दारुणमनोभ्रूप्रविहितमोह। इय मुद्रितविशिष्ट चैतन्या वनस्पतय इव, मौनीन्द्री कर्मचेतना पुण्यबंधभयेनानवलम्बमाना अनासादितपरमनंष्कर्म्यरूपत्रानचेतनाविश्रान्तयों व्यक्ताध्यक्तप्रमादतन्द्रा परमागतकर्मफल चेतनाप्रधानप्रवृतयो वनस्पतय इव केवल पापमय बध्नान्ति।' २. 'परमार्थतो वीतरागत्यमेव तात्पर्यमिति । तदिदं वीतरागत्वं व्यवहार निश्वयायिधेनेयानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये न पुनरन्यथा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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