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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३२५ को पुद् गल के ' कहा गया है, किन्तु ये भाव सर्वथा पुद्गल के हों ऐसा नहीं है । व्यवहारनय से ये भाव जीव के हैं जैसा कि गाथा ५६ समयसार में कहा गया है । व्यवहारनय को यदि स्वीकार न किया जाये और परमार्थनय का ही एकान्त किया जाय तो त्रस स्थावरजीवों का घात नि:शंकपने से करना सिद्ध हो सकता है। जैसे भस्म के मर्दन करने में हिंसा का अभाव है उसीतरह त्रस - स्थावरजीवों के मारने में भी हिंसा सिद्ध नहीं होगी, किंतु हिंसा का प्रभाव ठहरेगा, तब उनके घात होने से बंध का भी अभाव ठहरेगा । उसी तरह रागी, द्वेषी, मोहीजीव कर्म से बंधता है उसको छुड़ाना है वह भी परमार्थ से राग, द्वेष, मोह से जीव भिन्न दिखाने पर तो मोक्ष के उपाय का उपदेश व्यर्थ हो जायगा । तब मोक्ष का भी प्रभाव ठहरेगा, इसलिये व्यवहारनय कहा गया है (स. सा. गा. ४६ की टीका ) अतः व्यवहारनय सर्वथा प्रभूतार्थ नहीं है । व्यवहारनय को भी समयसार गाथा १२ में प्रयोजनवान कहा है। शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में जीव संसारी नहीं है, किन्तु वास्तव में जीव संसारी भी है जो प्रत्यक्ष अनुभव में आता है | अतः शुद्धनिश्चयनय भी सर्वथा भूतार्थ नहीं । यदि कथन में निश्चय - व्यवहार की सापेक्षता रहती है तो सब कथन सम्यक् है । यदि निश्चयनिरपेक्ष व्यवहार है या व्यवहारनिरपेक्षनिश्चय है तो सब कथन मिथ्या है। - जं. स. 1-1-59 / V / सिटेमल जैन, सिरोज १. किसी भी नय उपदेश को सर्वथा (सत्य) नहीं समझ लेना चाहिये २. निश्चय के ही कथन को ग्रहण करने वाला मिथ्यादृष्टि है। ३. भगवान् गौतम स्वामी ने भी व्यवहार का श्राश्रय लिया था ४. व्यवहार सर्वथा झूठ या हेय ( छोड़ने योग्य ) नहीं है शंका- मो० मा० प्र० पृ० ३६६ 'व्यवहार अभूतार्थ है सत्यस्वरूप को न निरूपे है किसी अपेक्षा उपचार करि अन्यथा निरूप है । बहुरि शुद्धनय जो निश्चय है सो भूतार्थ है । जैसा वस्तु का स्वरूप है तैसा निरूपं है ।' प्रश्न- यह कथन क्या सर्वथा ठीक है ? क्या निश्चय या और कोई नय वस्तु के सत्य अर्थात् यथार्थ वास्तविकस्वरूप का निरूपण कर सकता है ? यदि हाँ तो नय का विषय द्रव्यांश ( एकधर्म ) होता है सम्पूर्ण द्रव्य ( धर्म ) नहीं ! फिर उस अनेकान्तात्मक ( अनेकधर्मात्मक ) द्रव्य का नय द्वारा कैसे निरूपण हो सकता है ? प्रमाण वाक्य और नयवाक्य में क्या अन्तर है ? शंका- मो० मा० प्र० पृ० ३६६ 'बहुरि निश्चय व्यवहार दोऊनि को उपादेय माने हैं सो भी भ्रम है ।' यह कहां तक ठीक है ? फिर क्या निश्चय उपादेय व व्यवहार हेय समझना चाहिये ? हेय उपादेय का विकल्प क्या निश्चय है या व्यवहार है ? शंका मो० मा० प्र० पृ० ३६९ 'तातें व्यवहारनय का श्रद्धान छोड़ि निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है ।' यह कथन कहां तक ठीक है ? शंका- मो० मा० प्र० पृ० ३६९ 'ताका समाधान - जिनमार्ग विषे कहीं तो निश्चय की मुख्यता लिये व्याख्यान है ताकौ तो सत्यार्थ ऐसे ही है ऐसा जानना । बहुरि कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है ताकों ऐसा नहीं है निमित्त की अपेक्षा उपचार किया है इसप्रकार जानने का नाम ही दोऊ नयनि का ग्रहण है । बहुरि ats aft के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानि जो ऐसे भी हैं ऐसे भी हैं ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तनकरि तो दोऊ नयनि का ग्रहण करना कह्या है नाहीं ।' यह कथन भी क्या ठीक है ? यदि है तो फिर अनेकान्त 'ऐसे भी है, ऐसे भी है' न होकर 'ऐसे ही है, अन्य नहीं'; इसरूप होना चाहिये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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