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________________ ६१० [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्री अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार गाथा ३५ व ७२ की टीका में यह बतलाया है कि जिस समय स्वपर का भेदविज्ञान होता है उसी समय मनुष्य परद्रव्यों को और रागादि परभावों को त्याग देता है अर्थात संयमी हो जाता है, क्योंकि रागद्वेष की निवृत्ति चारित्र से होती है, जैसा कि श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है-'रागद्वषनिवृत्ये चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।' जब तक परद्रव्यों को और रागादि परभावों को नहीं छोड़ता है तब तक वह सच्चा पारमार्थिक भेदविज्ञान नहीं है। क्रोधादिक की निवृत्तिरूप चारित्र से अविनाभावी जो ज्ञान है वही कार्यकारी है। ज्ञान वही सार्थक है जो क्रोधादि की निवृत्तिरूप चारित्र को उत्पन्न करे। . श्री अमितगति आचार्य ने भी कहा है परद्रव्यबहिर्भूतं स्वस्वभावमवैति यः । परद्रव्ये स कुत्रापि न च द्वेष्टि न रज्यति ॥५॥ जो अपने स्वभाव को परद्रव्यों से भिन्न जानता है वह परद्रव्यों में कहीं भी राग नहीं करता है और न द्वेष करता है। यदि कहा जाय कि असंयतसम्यग्दृष्टि के भी भेदविज्ञान होता है और वह भी अनंतानुबंधी क्रोधादि से निवृत्त होता है इसलिये ज्ञान का फल संयम कहना उचित नहीं है। ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान से रहित बहिरात्मा भी तीसरे गुणस्थान में अनन्तानुबंधी क्रोधादि से निवृत्त रहता है और उसके भी उन्हीं ४१ प्रकृ. तियों का संवर होता है जिनका संवर असंयतसम्यग्दृष्टि के होता है । जिस सम्यग्दृष्टि ने अनंतानुबंधीकषाय की विसंयोजना कर दी है और वह सम्यग्दर्शन से च्युत होकर जब मिथ्यात्व को प्राप्त होता है उस मिथ्याडष्टि के भी एक आवली तक अनंतानुबंधी का उदय नहीं होता है। अतः वह मिथ्यादृष्टि भी एक प्रावली तक अनंतानुबंधीक्रोधादि से निवृत्त रहता है। समयसार गाथा ३५ व ७२ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने उसी मनुष्य को पारमार्थिक भेदविज्ञानी कहा है जिसका फल परद्रव्यों के और रागादि परभावों के त्यागरूप संयम है, अथवा जो भेदविज्ञान संयम का अविनाभावी है वही पारमार्थिक भेदविज्ञान है। मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि को उपादेय बतलाया है और ग्रन्थकारों ने उसकी बहुत प्रशंसा भी की है, किन्तु संयमी की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि हेय है। "बहिरात्माहेयस्तदपेक्षया यद्यपि अन्तरात्मोपादेयस्तयापि सर्वप्रकारोपावेयभूत परमात्मापेक्षया स हेय इति।" ( परमात्मप्रकाश गाथा १३ को टीका ) यहां पर भी यही बतलाया गया है कि यद्यपि बहिराह्मा ( मिथ्यादृष्टि ) की अपेक्षा अन्तरात्मा ( सम्यग्दृष्टि ) उपादेय है तथापि परमात्मा की अपेक्षा अन्तरात्मा हेय है । सम्यग्दर्शन तो इस जीव को चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है, किन्तु उच्च कुलवाला कर्म भूमि का मनुष्य ही संयम धारण कर सकता है। इसीलिये सम्यग्दृष्टिदेव भी ऐसी मनुष्यपर्याय की इच्छा करता है। दुर्लभ ऐसी मनुष्यपर्याय को और शास्त्रों का ज्ञाता होकर भी जो सिनेमा आदि, अभक्ष्य-भक्षण व रात्रिभोजन का भी त्याग नहीं करते वे मूढ़ दिव्यरल को पाकर उसे भस्म के लिये जलाकर राख कर डालते हैं। श्री स्वामिकातिकेय आचार्य ने कहा भी है। इय दुलहं मणयत्त लहिऊणं जे रमति विसएसु । ते लहिए दिन्वरयणं भूइ णिमित्त पजालंति ।। ३००॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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